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________________ आचार्य परमेष्ठी वे हैं, जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से युक्त हैं, जो स्वयं श्रेष्ठ चारित्र धारण करते हैं, बारह व्रतों का पालन करते हैं और अपने शिष्यों से भी श्रेष्ठ चारित्र एवं श्रेष्ठ तप का पालन कराते हैं। उपाध्याय परमेष्ठी वे हैं, जो रत्नत्रय से युक्त हैं, नित्य भव्य जीवों और शिष्यों को धर्मोपदेश देते हैं । वे मुनियों में श्रेष्ठ होते हैं । साधु परमेष्ठी निश्चय से दर्शन और ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं और चारित्र को नित्य शुद्ध रीति से पालन करते हैं । इस प्रकार ध्यान करते समय पाँचों परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए। मन, वचन और काय को पूर्ण संयमित करना चाहिए । आत्मा में स्थिर हो ध्यान करना चाहिए। क्योंकि ध्यान के बिना मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस प्रकार ध्यान का बहुत ही सुन्दर वर्णन इस ग्रन्थ में आया है । जो बात बड़े-बड़े ग्रन्थों में ध्यान के विषय में कही जाती है, वही बात संक्षेप में और सरल तरीके से इस ग्रन्थ में समझाई है। आचार्य कहते हैं कि ध्यान करने की सबसे सरल पद्धति यह है कि तुम किसी से कुछ बोलो मत, कुछ सोचो मत, हिलोडुलो नहीं, बस बैठ जाओ और धीरे-धीरे मन लगने पर णमोकार मन्त्र बोलो। पूरा नहीं तो एक लाइन बोलो, एक लाइन नहीं तो सिर्फ 'ऊँ' बोलो। बस मन्त्र की सहायता से अपनी आत्मा को आत्मा से मिलाओ । तभी ध्यान की सिद्धि और मोक्ष प्राप्ति होगी। इस प्रकार नेमिचन्द्र मुनि ने बहुत ही संक्षेप में जैनदर्शन के छह द्रव्यों एवं सात तत्त्वों का कथन इस द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में किया है । छोटी-छोटी परिभाषाओं एवं भेदों के कारण यह ग्रन्थ पाठक के अध्ययन के लिए सरल हो गया है। एकाग्रता के साथ इस ग्रन्थ का अध्ययन करने पर पाठक छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पाँचों परमेष्ठी एवं ध्यान – इन विषयों को गहराई के साथ आसानी से समझ सकते हैं। यह ग्रन्थ बहुत ही सुन्दर, सरल एवं संक्षिप्त है। इस छोटे से ग्रन्थ ‘द्रव्यसंग्रह' ने समाज व साहित्य को महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। निश्चय ही यह ग्रन्थ भव्य जीवों को ध्यान एवं मोक्षमार्ग के लिए मार्गदर्शन करेगा । - द्रव्यसंग्रह :: 171
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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