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7. आस्रव भावना - मन, वचन और काय - इन तीनों के द्वारा जो क्रिया, कार्य होती है, उससे आस्रव होता है। शुभ कार्यों से शुभास्रव और अशुभ कार्यों से अशुभास्रव होता है ।
8. संवर भावना - जो शुभ और अशुभ भाव नहीं करते हैं, सिर्फ आत्मा के चिन्तन में मन लगाते हैं, वे आते हुए नवीन कर्मों को रोकते हैं। कर्मों को रोकना ही संवर भावना है।
9. निर्जरा भावना - तप के द्वारा पूर्व के संचित शुभ अशुभ कर्मों का झड़ जाना ( नष्ट हो जाना) निर्जरा है । निर्जरा दो प्रकार की होती है : 1. सविपाक निर्जरा, 2. अविपाक निर्जरा ।
सविपाक - अपने समय पर ही कर्मों का नष्ट होना । जैसे- समय
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पर आम का पकना ।
अविपाक - तप के द्वारा कर्मों को नष्ट करना । अविपाक निर्जरा से मोक्ष सुख प्राप्त होता है। जैसे- समय के पहले दवाओं द्वारा आम को पकाना।
10. लोक भावना - छ: द्रव्यों से बने इस संसार में जीव सन्तोष के बिना इधर-उधर भटकता हुआ दुख पाता है।
11. बोधिदुर्लभ भावना - स्वर्ग के देवों को भी रत्नत्रय प्राप्त नहीं होता है, ऐसे कठिन रत्नत्रय को दिगम्बर मुनिराज ही प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा चिन्तन करना बोधिदुर्लभ भावना है।
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12. धर्म भावना - रत्नत्रय ही धर्म है, जो प्राणी इसको धारण करता है, वही मोक्ष सुख पाता है। यह रत्नत्रय धर्म केवल मुनिराजों द्वारा ही धारण किया जाता है। ऐसा विचार करना धर्म भावना है।
छठी ढाल
इस ढाल में महामुनिराज के सकल संयम चारित्र के बारे में बताया गया है। मुनिराज मन, वचन और काय से 28 मूलगुणों का पालन करते हुए, बारह प्रकार तपों को धारण कर तपस्या करते हैं । दश धर्मों को ग्रहण करते हैं और रत्नत्रय धर्म को हमेशा धारण करते हैं।
सकल संयम चारित्र को धारण करने के बाद मुनिराज सम्यग्ज्ञान के द्वारा अपनी आत्मा में लीन हो जाते हैं। आत्मा में अपने आप को जान लेते हैं और निर्विकल्प समाधि में स्थित हो जाते हैं । तब मुनिराज के स्वरूपाचरण चारित्र
146 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय