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जीव निगोद से निकलकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति (स्थावर) में जन्म लेकर अनेक दुख सहता है।
जैसे-चिन्तामणि रत्न बहुत कठिनाई से मिलता है, उसी तरह जीव को त्रसपर्याय (दो इन्द्रिय से पाँच इन्द्रियवाले जीव) कठिनाई से मिलती है। परन्तु वहाँ भी यह जीव, चींटी और भौंरा इत्यादि शरीर धारण कर दुख सहते हुए मर जाता है। कभी पंचेन्द्रिय पशु जैसे गाय, भैंस, बैल, हिरण, शेर भी होता है, तो अज्ञानी होता है। वह कभी अपने से निर्बल प्राणी को खाता है, तो कभी बलवान पशु उसे खा लेते हैं। कभी भूख, प्यास, ठण्ड, गर्मी, बाँधा जाना, मारा जाना, छेदा जाना और बोझा ढोना आदि अनेक कष्ट सहन करते हुए बुरे भावों से यह जीव मर जाता है और नरक गति में जन्म लेता है।
नरक गति में भूमि का स्पर्श करने मात्र से इतना अधिक दुख होता है कि एक साथ हजार बिच्छु डंक मारें तो भी उतना दुख नहीं होता। नरकों में वैतरणी नामक नदी बहती है। जो छोटे-छोटे कीड़ों के समूह से, पीप और खून से भरी होती है। जिसके कारण शरीर में तीव्र आग उत्पन्न होती है। नरकों में तलवार की धार के समान काटनेवाले सेमर के वृक्ष हैं। वहाँ सर्दी और गर्मी इतनी अधिक होती है कि सुमेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला भी गल जाता है। नरक में नारकी प्राणी एक-दूसरे के शरीर के तिल के दाने के बराबर टुकड़े कर देते हैं। असुर जाति के देव एक-दूसरे को लड़ाते रहते हैं। वहाँ भूख और प्यास बहुत ज्यादा लगती है, परन्तु नरक में खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं मिलता है। जीव को नरक के दुख करोड़ों वर्षों तक सहन करना पड़ता है।
शुभ कर्म के उदय से जीव को मनुष्य गति मिल जाती है। परन्तु मनुष्य गति में भी जीव को नौ महीने तक माता के गर्भ में रहने पर और जन्म के समय बहुत अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। बचपन में ज्ञान नहीं होने से, जवानी में धन और स्त्री में लीन होने से और वृद्धावस्था में दुर्बल होने के कारण जीव कभी भी अपनी आत्मा का स्वरूप नहीं जान पाता है।
देवगति प्राप्त करने के बाद भी पाँचों इन्द्रियों के विषयों की अग्नि में जलकर और मरते समय रो-रोकर अनेक दुख सहन करना पड़ता है। यदि वैमानिक देव (उच्च श्रेणी के देव) भी होता है, तो सम्यग्दर्शन धारण नहीं करता, इसलिए अनेक दुख प्राप्त करता है।
इस प्रकार जीव सम्यग्दर्शन के बिना चारों गतियों में भटकता रहता है।
छहढाला :: 141