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________________ 19. चर्या परीषह : चार हाथ जमीन देखकर मुनिराज (ईर्यापथ) ____ शोधते हुए चलते हैं। 20. वध परीषह : प्राणघातक उपसर्ग होने पर भी वे उसे समता भाव से सहन करते हैं। 21. निषद्या परीषह : मुनिराज सकल परिग्रह का त्याग कर घनघोर ___ जंगल, अटवी, वन, श्मशान भूमि में निवास करते हैं, वहाँ उपसर्ग को सहन करते हुए निषद्या परीषह सहन करते हैं। 22. स्त्री परीषह : मुनिराज स्त्री के शरीर को महामलिन दुर्गति का कारण जानकर उससे कभी अनुराग नहीं रखते हैं। इस प्रकार बाईस परीषहों को मुनिराज निरन्तर सहन करते हैं। सहन क्या करते हैं, अपनी अध्यात्मविद्या के बल पर इन परिषहों पर विजय प्राप्त करते हैं। यही कारण है कि इन्हें परिषहजय कहते हैं। __मुनिराज के तो रत्नत्रय पूर्णरूप से हैं, किन्तु गृहस्थ श्रावक सम्पूर्ण रत्नत्रय का पालन नहीं कर सकता, इसलिए उसे इनका एकदेश पालन करना चाहिए, क्योंकि रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण है। मुनि का रत्नत्रय महाव्रत के योग से साक्षात् मोक्ष का कारण है और श्रावक का रत्नत्रय अणुव्रत के योग से परम्परा से मोक्ष का कारण है, अर्थात् जिस श्रावक को सम्यग्दर्शन हो जाता है, उसका अल्पज्ञान भी सम्यग्ज्ञान और अणुव्रत का पालन भी सम्यक्चारित्र कहा जाता है, इसलिए रत्नत्रय का धारण करना अत्यावश्यक है। विवेकी पुरुष गृहस्थ दशा में ही मोक्षमार्ग के लिए प्रयत्न करते हैं, वे अवसर पाकर शीघ्र मुनिपद धारण कर लेते हैं। वे सकल परिग्रह का त्याग कर ध्यान में रहकर पूर्ण रत्नत्रय प्राप्त कर मोक्ष की प्राप्ति कर लेते हैं। इस प्रकार इस लघु ग्रन्थ में श्रावक धर्म का सरलता से वर्णन किया है, जिससे श्रावक आसानी से समझकर आत्मा के स्वरूप को जानकर व्यवहार में रत्नत्रय धर्म को धारण कर निश्चित ही मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त कर सकता है। 138 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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