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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ के नाम का अर्थ 'रत्नकरण्ड' नाम का अर्थ है-'रत्नों का करण्ड अर्थात् रत्नों का पिटारा'। श्रावकाचार अर्थात् श्रावक का आचार, श्रावक के करने योग्य कार्य। इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-इन तीन अनमोल रत्नों को समझाया है। जैसे-पुरुष को जब रत्नों की प्राप्ति हो जाती है, तब वह खुश हो जाता है, उसे सांसारिक सुख की प्राप्ति हो जाती है। ठीक उसी प्रकार जब भव्य प्राणी इन तीन रत्नों, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र को जीवन में धारण करता है, तो उसे मोक्ष-सुख की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए इस ग्रन्थ को रत्नों का पिटारा कहा जाता है। क्योंकि इसमें श्रावक के आचार और सिद्धान्त बताए गये हैं, अतः 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' नाम उचित एवं सार्थक प्रतीत होता ग्रन्थकार का परिचय रत्नकरण्ड श्रावकाचार के लेखक आचार्य समन्तभद्र स्वामी हैं। इनका समय दूसरी शताब्दी माना जाता है। प्रतिभाशाली आचार्यों, विद्वानों एवं महात्माओं में आपका स्थान बहुत ऊँचा है। आपको सभी लोग 'स्वामी' कहते थे, क्योंकि आप विद्वानों, योगियों, त्यागी और तपस्वियों के द्वारा भी सम्माननीय थे। आपके द्वारा रचित निम्न ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं 1. स्तुतिविद्या, 2. युक्त्यनुशासन, 3. स्वयम्भू स्तोत्र, 4. देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा), 5. रत्नकरण्ड श्रावकाचार। रत्नकरण्ड श्रावकाचार:: 105
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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