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________________ 28 से 35. आठ प्रातिहार्यों का वर्णन इन आठ काव्यों में अशोक वृक्ष, सिंहासन, चँवर, छत्र, दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भामंडल और दिव्यध्वनि - इन आठ प्रातिहार्यों का वर्णन किया है। क्योंकि तीन लोक के नाथ जिस समवशरण में विराजते हैं, वहाँ ये आठ प्रातिहार्य होते हैं । अशोक वृक्ष के नीचे जिनेन्द्र देव की आकृति दिव्य सिंहासन पर दिव्य और मनोहारी दिखाई देती है। तीन छत्र और दोनों ओर दो चँवर शोभित होते हैं । देवगण दिव्य पुष्पों से पुष्पवृष्टि करते हैं । अनेक सूर्यों से भी अधिक प्रभावशाली आपका आभामंडल ( मुख का तेज) दिखाई देता है । समवशरण के समस्त जीवों को अपनी-अपनी भाषा में दिव्य ध्वनि (उपदेश) सुनाई देता है। 36. स्वर्ण कमलों की रचना भगवान का जहाँ-जहाँ विहार होता है, वहाँ-वहाँ देवगण सुवर्णमय कमलों की दिव्य रचना करते जाते हैं । 37. अद्वितीय - विभूति प्रभु का जब धर्मोपदेश होता है तब वहाँ अद्वितीय दिव्य विभूतियाँ होती हैं अर्थात् अनेक आश्चर्य, अतिशय होते हैं । 38 से 46. भय निवारक इन आठ काव्यों में आचार्य कहते हैं कि हे जिनेन्द्र देव, आपके भक्त सदैव सभी भयों से मुक्त रहते हैं । 1. आपके शरण में रहनेवाले भक्त को मदोन्मत्त हाथियों से कोई भय नहीं होता है । 2. आपके भक्त भयंकर शेरों के भय से मुक्त रहते हैं । 3. सम्पूर्ण विश्व को भस्म कर देनेवाले प्रचण्ड दावानल भी आपके नाम लेने मात्र से शान्त हो जाता है 1 4. आपका भक्त सदा सर्प के भय से मुक्त रहता है I 5. आपका नाम लेने मात्र से आपके भक्त के समस्त शत्रु ( रणक्षेत्र के शत्रु) भाग जाते हैं । आपका भक्त शत्रु से मुक्त हो जाता है । भक्तामर स्तोत्र :: 103
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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