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________________ इतिहासविदों के अनुसार तपागच्छ, अंचलगच्छ आदि प्राचीन गच्छों का प्रादुर्भाव खरतरगच्छ के बाद हुआ । ' ऐतिहासिकता की दृष्टि से अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जिनेश्वरसूरि एवं सूराचार्य के मध्य यह शास्त्रार्थ किस समय हुआ था। इस सम्बन्ध में हमें दो प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, जिनमें कतिपय विद्वानों ने इस घटना को संवत १०२४ में हुई स्वीकार करते हैं और कतिपय विद्वान वि० सं० २०८० में । खरतरगच्छ सूरिपरम्परा प्रशस्ति में संवत् १०२४ का उल्लेख उपलब्ध होता है श्री पत्तने दुर्लभराज राज्ये विजित्यवादे मठवासि सुरिन् । वर्षsor पक्षा शशि प्रमाणे लेभेऽपि येः खरतरोविरुद युग्मम् ॥ १ जबकि अन्य विद्वान यह चर्चा संवत् १०८० में हुई मानते हैं संवत् १०८० दुर्लभराज सभायां ८४ मठपतीन जीत्वा प्राप्त खरतर विरुदः । किन्तु ये दोनों ही उल्लेख अर्वाचीन पाट्टवली के हैं । इस सम्बन्ध अधिक प्राचीन उल्लेख एक भी नहीं मिलता। आचार्य जिनदत्तसूरि, उपाध्याय जिनपाल, सुमति गणि, प्रभाव - चरित्रकार प्रभृति ने अन्य समग्र प्रसंगों का वर्णन किया है, परन्तु चर्चा के संवत का कहीं भी संकेत नहीं दिया । इसका कारण यह है कि सभी प्रबन्धकार परवर्ती हैं, समसामयिकी एक भी नहीं है। उन्होंने गीतार्थ श्रुति के आधार पर ही प्रबन्ध लिखे । अतः संवतोल्लेख में अन्तर होना स्वाभाविक है । वस्तुतः दुर्लभराज ने पाटन पर संवत् १०६६ से १०७८ तक राज्य किया था, ऐसा उल्लेख मेरुतुंगसूरि की विचार श्रेणी की स्थविरावली १ २ ३ - द्रष्टव्य - - खरतरगच्छ का इतिहास, पृष्ठ ६ खरतरगच्छ-सूरिपरम्पराप्रशस्ति, ३८ खरतरगच्छ पट्टावली, उद्धृत युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि, भूमिका, पृष्ठ ४० ७२
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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