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यमुना को घर-घर पहुँचाए। सदुपदेश देना मुनि का अनिवार्य कर्त्तव्य है, पर वह वैसा न कर पाता। उसकी सारी प्रेरणाएँ राजनीति एवं विलास-प्रधान हो गई। वह विहार-चर्या की उग्रता का सहिष्णु न होकर स्थानपति और मठाधीश हो गया।
चैत्यवासी चूंकि एक ही स्थान पर रहते, अतः उस क्षेत्र में उनका सम्पर्क अधिकाधिक होता चला जाता। सम्पर्क परिग्रह का ही एक अंग है। चैत्यवासी राज्याधिकारियों से अपना सम्पर्क दृढ़ करने की अधिक चेष्टा करते। राजगुरु का पद पाने के लिए वे यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र का भी बेझिझक उपयोग करते। छत्र, चामर, अंगरक्षक आदि राजकीय सम्मान जनक चीजें भी वे धारण करते।
चैत्यवासी यति श्रमण-जीवन की आदर्श भूमिका से च्युत हो गये थे । अध्यात्म का राजमार्ग उनसे कोसों दूर हो गया। साधुजीवन की निर्मलता उनके लिए गौण हो गई। लोकरंजन उनकी जीवन-चर्या का एक अभिन्न अंग बन गया। कहने के लिए भले ही कह दे कि परिग्रह पाप की जड़ है, पर वास्तविकता तो यह थी कि उनका जीवनवृक्ष उसी जड़ पर फल-फूल रहा था। स्वयं धन-सम्पति, ऐश्वर्य-सामग्री का भोग करते। ___ इसकी आचार-संहिता में इतना शैथिल्य आ गया था कि इसका अपना मूलभूत व्यक्तित्व ही समाप्त हो गया था। धर्म के कर्णधारों में विलासिता का धुन समा गया था, परिग्रह का भूत सवार हो रहा था, सर्वत्र आडम्बर का बोलबाला था, शास्त्रीय अर्थों को भी तोड़मरोड़कर अपने मनोनुकूल व्यवहृत किया जा रहा था, धार्मिक संघसमुदाय किंकर्तव्यविमूढ़ था। इस समस्याग्रस्त विषम परिस्थितियों में धार्मिक जीवन में तेजस्विता एवं प्रखरता लाने के लिए खरतरगच्छ का प्रादुर्भाव हुआ।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने चैत्यवास की तत्कालीन परिस्थिति का
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