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अपितु उसका संरक्षण और प्रसारण भी किया। उसी का फल है कि आज जैसलमेर ज्ञानभंडार जसे अनेकानेक ज्ञानभंडार/प्रन्थालय उनके प्रयासों से मूर्तरूप लिये हुए हैं। इस तरह उनकी यह विद्योपासना न केवल खरतरगच्छ अथवा जैन धर्म की दृष्टि से अपितु समस्त भारतीय संस्कृति और साहित्य की दृष्टि से भी नितान्त उल्लेखनीय और महत्त्वपूर्ण है।
इस सम्बन्ध में महोपाध्याय विनयसागर का अभिमत है कि खरतरगच्छ की परम्परा के मनीषियों ने जितना साहित्य-सर्जन किया है उसकी आज श्वेताम्बर समाजके समग्र गच्छों द्वारा निर्मित साहित्यनिधि से तुलना की जा सकती है। इन मनीषियों ने आगम, कर्मसाहित्य, कथानुयोग, प्रकरण, व्याकरण, दर्शन, न्याय, लक्षण, छन्द, कोष, साहित्य, ज्योतिष, वैद्यक, नाट्य, नीति आदि सभी विषयों पर अपनी लेखनी चलाकर, मौलिक एवं टीकाएँ रचकर केवल जैन-साहित्य की ही नहीं अपितु भारतीय साहित्य की अनुपमेय सेवा की है। इन मनीषियों ने केवल साहित्य-सर्जन ही नहीं अपितु उस साहित्य के संरक्षण, संवर्धन तथा संप्रचलनमें भी अत्यधिक योग दिया है, जिसकी सृष्टि जनेतर विद्वानों ने की थी। इस परम्परा के आचार्य प्रायः विद्वान हुए हैं और इन्होंने अपनी 'करनी' और 'कथनी' को सदा ही पाण्डित्य की शान पर पेनी करके रखा है। यही कारण है कि इस गच्छ और परम्परा के अनेक विद्वानों की कृतियां और सिद्धियां अपने गच्छ के सीमित परिधि से ऊपर उठकर सर्वगच्छीय सम्मान प्राप्त कर सकी हैं।
खरतरगच्छ का समग्र साहित्य सरस्वती का विराट भंडार है। इस गच्छ ने ऐसे-ऐसे ग्रन्थ दिये हैं, जिनकी टक्कर के दूसरे ग्रन्थ सम्पूर्ण संसार में नहीं है। उदाहरण के लिए अष्टलक्षी। इस प्रन्थ में 'राजा नो ददते सौख्यम' इस अष्टाक्षरीय वाक्य के दस लाख बाईस १ वल्लभ-भारती, पृ० ५६ ।
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