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________________ को यह अनुपम और अद्वितीय अनुदान हैं। प्राप्त उल्लेखों के अनुसार जिनदत्तसूरि के हस्ते एक लाख तीस हजार नये जैन बने। इसी प्रकार आचार्य जिनकुशलसूरि ने अपने जीवन में पचास हजार से अधिक जैन बनाये। जैन धर्म के व्यापक विस्तार की दृष्टि से खरतरगच्छ ने बहुत बड़ा कार्य किया, लाखों अजैनों को जैनधर्म में प्रवृत्त किया। क्षत्रिय जाति का जैन धर्म के साथ प्रारम्भ से ही बड़ा निकटतापूर्ण सम्बन्ध रहा, किन्तु आगे चलकर परिस्थितिवश वैसा नहीं रह सका। शताब्दियों बाद आचार्य श्री जिनदत्तसूरि एवं उनकी परम्परा में हुए आचार्यों ने अपने त्याग-तपोमय आदर्शों और उपदेशों से लाखों क्षत्रियों को प्रभावित किया, उन्होंने जैनधर्म स्वीकार किया। ओसवाल जाति, जो आज लाखों की संख्या में है, उसी क्षत्रियपरम्परा की आनुवंशिकता लिये है। काश, खरतरगच्छ के इस महनीय कार्य का सम्पूर्ण जैन समाज अनुकरण कर पाता तो आज जैनों की संख्या करोड़ों में होती। (७) गोत्रों की स्थापना मारतीय समाज अनेक वंशों एवं गोत्रों में विभक्त है। जैनपरम्परा के अनुसार संसार में पहला वंश-नामकरण भगवान् ऋषभदेव से सम्बद्ध है। इनसे इक्ष्वाकु-वंश जन्मा । भारतीय-वंश-परम्परा में यह सर्वप्रथम वंश माना जाता है। ऋषभदेव से ही तीन कुल प्रगट हुए-उग्र, भोग और राजन्य । धीरे-धीरे वर्ण, जाति, वर्ग, कुल, वंश, गोत्र इत्यादि परम्पराएँ विकसित हुई। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र-ये चार वर्ण प्रसिद्ध हैं । 'स्थानांगसूत्र' में सात गोत्रों का उल्लेख प्राप्त होता है। प्रत्येक गोत्र से सातसात शाखाएँ विकसित हुई। स्थानांग में उनचास गोत्र-शाखाओं का वर्णन मिलता है। कल्पसूत्र स्थविरावली-खण्ड में भी प्राचीन
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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