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बिना साधु-साधु नहीं, अपितु सांसारिक वृत्तियों में रचा-पचा गृहस्थ जैसा है। __(१) अशुद्ध और स्वयं के लिए निर्मित भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए।
(२) चैत्य आत्म-साधना का स्थान है। अतः वहां निवास नहीं करना चाहिए । ___ (३) चैत्यों/जिन मंदिरों के अर्थ का उपभोग और वहाँ गृहस्थ-धर्म का सेवन अनुचित है।
(४) गद्दी आदि का आसन, तत्सम्बन्धित कामोद्दीपक साधन और आश्रवपूर्ण क्रियाओं का परित्याग होना चाहिए।
(५) सिद्धान्त मार्ग की अवज्ञा, उन्मार्ग उत्सूत्र की प्ररूपणा, सन्मार्ग प्ररूपक आत्मसाधक-मुनियों की अवहेलना एवं गुणीजनों की उपेक्षा कदापि नहीं करनी चाहिए आदि-आदि।
उक्त तथ्यों की ओर संकेत करते हुए आचार्य जिनवल्लभसूरि ने लिखा है
यत्रोद्देसिकभोजनं जिनगृहेवासो वसत्यधमा। स्वीकारोऽर्थगृहस्थचैत्यसदनेष्वप्रेक्षिताद्यासनम् । सावद्याचरितादरः श्रुतपथावा गुणिर्वेषधीः।
धर्मः कर्म हरोऽत्र चैत्पधि भवेन्मेरुस्तदाब्धो तरेत् ॥' इसी प्रकार अन्य भी अनेक छोटे-बड़े विधान “विधि चैत्य” और साधुगण के लिए प्ररूपित किये गये। खरतरगच्छ की मान्यताओं, विधानों एवं व्यवस्थाओं का विस्तृत विवरण जिनवल्लमसूरि रचित 'षटकल्याणक विधि', मणिधारी जिनचन्द्रसूरि रचित 'पदव्यवस्था कुलक', आचार्य जिनप्रभसूरि रचित 'विधिप्रपा', रुद्रपल्लीय आचार्य वर्धमानसुरि रचित 'आचार दिनकर', महोपाध्याय समयसुन्दर रचित 'समाचारी-शतक' आदि ग्रन्थों में द्रष्टव्य है। १ संघपट्टक, कारिका ५..- . --
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