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इनके पिता एवं गुरु भी एक अच्छे लेखक थे, अतः इनमें सृजनात्मक क्षमता जन्मजात संस्कारगत थी । ये लक्षण, प्रमाण और शास्त्र-सिद्धान्त के पारगामी थे । इन्हें ३४ वर्ष की आयु में गच्छाधि पति पद मिला था। इनके शासनकाल में खरतरगच्छ में दूसरा शाखा-भेद हुआ ।
इनके जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में "श्रीजिनेश्वरसूरि चतुःसप्ततिका में परिलिखित है कि इनका जन्म विक्रम संवत् १२४५, मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष ११ को हुआ था । इनके पिता का नाम नेमिचन्द्र भाण्डागारिक था, जो मरोट निवासी थे और इनकी माता का नाम लखमणि/ लक्ष्मणा था । इनकी दीक्षा वि० सं० १२५८ चैत्रकृष्ण २ को खेड़नगर में भगवान शान्तिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा के अवसर पर आचार्य जिनपतिसूरि के करकमलों से हुई थी। इनका दीक्षा-नामकरण वीरप्रभ हुआ । इनका गृहस्थ-नाम आम्बड़ / अम्बड़ था । ये प्रथम वीरप्रमणि और पश्चात् जिनेश्वरसूरि के नाम से ही कीर्तिमान हुए थे । वि० सं० १२६० आषाढ़ कृष्णपक्ष ६ को इनकी वृहद्दीक्षा हुई थी । वि० सं० १२७३ के पूर्ववर्ती काल में ही इन्हें गणिपद प्रदान किया जा चुका था, यह अनवगत है । हमने उक्त संवतोल्लेख वृहद्वार में सं० १२७३ में उपाध्याय जिनपाल और पंडित मनोदानन्द के बीच हुए शास्त्रार्थ के आधार पर किया है । प्राप्त उल्लेखों के अनुसार वीरप्रभ भी उस शास्त्रार्थ में उपस्थित थे और उन्हें "वीरप्रभगणि" के रूप में सूचित किया गया है ।
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युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के संकेतानुसार आचार्य सर्वदेवसूरि ने गणि वीरप्रभ को वि० सं० १२७८, माघ शुक्ल ६ के दिन आचार्य पद से अलंकृत कर जिनपतिसूरि के पाट पर स्थापित किया। अब इनका नाम परिवर्तन कर जिनेश्वरसूरि रखा गया । यह पाट महोत्सव अनेक दृष्टियों से अनुपम हुआ था, जिसका विस्तृत वर्णन युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में अवलोक्य है ।
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