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खाटू निवासी चौहान बुधसिंह एवं अड़पायतसिंह ने सं० १२०१ में जिनदत्तसूरि से जैनत्व स्वीकार किया। उनसे अबोड़ा गोत्र प्रकट हुआ एवं बुधसिंह के पुत्र खाटड़ से बटोल / खटेड़ गोत्र निकला ।
अजमेर के समीपस्थ भाखरी में गढ़वा नामक ब्राह्मण भी जिनदत्त से प्रतिबोधित हुआ । उससे गडवाणी एवं भडगतिया गोत्र पनपा ।
सपादलक्ष देश के रुण गाँव में प्रधान ठाकुर वेगा को जिनदत्तसूरि की कृपा से पुत्र प्राप्ति हुई । एतदर्थं उसने जैनत्व अंगीकार किया । सं० १२१० में वेगा के वंशज रूण गाँव के नाम से 'रूणवाल' गोत्र से प्रसिद्ध हुए ।
देलवाड़ा का राजा बोहित्थ था । सं० १९६७ में जिनदत्तसूरि देलवाड़ा में पधारे। गुरुवर की महिमा सुनकर बोहित्थ भी सपरिवार उनके पास गया एवं प्रतिबोधित होकर जैनत्व स्वीकार किया । बोहिथ से बोहिथरा गोत्र प्रकट हुआ ।
यद्यपि जनदत्त ने अनगिनत नये जैन बनाये, किन्तु गलत तरीकों से या जोर-जबरदस्ती से नहीं । गलत तरीकों से समुदाय बढ़ाने के वे विरोधी थे । उन्होंने स्वयं लिखा है कि सूकरी के बहुत सन्तानें होती हैं, किन्तु खाने के लिए क्या मिलता है ? असत् तरीकों से श्रावकों की संख्या में बढ़ोतरी करना कभी श्रेयस्कर नहीं है । वह एक श्रावक भी अच्छा है, जो सही प्रतिबोध पाकर बना है ।
शिष्य परिवार - जिनदत्तसूरि का शिष्य-प्रशिष्य- समुदाय अत्यन्त विस्तीर्ण था । यद्यपि उनके शिष्यों की न तो पूरी सूची है और न ही गणना का उल्लेख है, किन्तु प्राप्त उल्लेखानुसार उनके अनुमानतः सहस्राधिक शिष्य-प्रशिष्य थे । मात्र विक्रमपुर में आपके पास १२०० दीक्षाएँ एक साथ हुई थीं। भला, जिस आचार्य के द्वारा एक समय में सैकड़ों दीक्षाएं होती हों, उसके शिष्यों की गणना हजारों में होनी स्वाभाविक है ।
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