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सात सौ शिष्यायें हुई । इस प्रकार आचार्य की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई ।
एक बार एक गाय बड़नगर के एक जैन मंदिर में मर गयी । तब ब्राह्मणों ने यह कहकर जैनों की खिल्ली उड़ाई कि जिनदेव गौ घातक है । जैन शासन की अवहेलना होते देख श्रावकों के आग्रह से आचार्य ने परकाय प्रवेशिनी विद्या द्वारा गाय को जीवित कर दिया । गाय स्वयंमेव शिवालय की ओर चली गयी और वहाँ शिवलिंग के पास जाकर गिर पड़ी। इससे ब्राह्मण हास्य- पात्र बने । अंत में ब्राह्मणों ने आचार्य से क्षमा प्रार्थना की और यह प्रतिज्ञा की कि भविष्य में बड़नगर में पधारने वाले खरतरगच्छ के आचार्यों का हम लोग भी प्रवेशोत्सव करेंगे। जिनदत्त ने ब्राह्मणों के निवेदन पर गाय को पुनर्जीवित कर दिया ।
इस प्रसंग का उल्लेख खरतरगच्छीय पट्टावलियों में मिलता है । किन्तु यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि यही प्रसंग वायड़ गच्छीय आचार्य जीवदेवसूरि के संबंध में भी प्राप्त होता है । प्रभावकचरित्र, पं० अमरचन्द रचित बालभारत, पद्मानन्द काव्य प्रशस्ति तथा राजशेखरसूरि विरचित प्रबन्धकोष आदि ग्रन्थों के अनुसार यह घटना जीवदेवसूरि से संबंधित है ।
परवर्ती एक पट्टावली के अनुसार जिनदत्तसूरि के व्याख्यानों को श्रवण करने के लिए देवों का आगमन भी होता था ।
मुनि ज्ञानहर्ष रचित जिनदत्तसूरि अवदात छप्पय में वर्णित है कि आचार्य जिनदत्तसूरि की कृपा से सीहोजी राठौड़ ने मरुभूमि में राज्य स्थापित किया । यही कारण है कि राठौड़ नरेश सदैव खरतरगच्छाचारियों को सम्मान देते आये हैं । '
१ द्रष्टव्य राठोड़वंशावली
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