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________________ मनोभिप्राय को परिज्ञात कर और उसे योग्य पात्र समझकर धीरे - धीरे ऐसी धर्मदेशना दी कि जिससे अल्प समय में ही वह वैराग्य-वासित हो गया । एक दिन जिनवल्लभ ने गणदेव से कहा- “भद्र ! क्या तुम्हें स्वर्णसिद्धि की विधि बताऊँ ?” गणदेव ने कहा – “भगवन् ! अब मुझे स्वर्ण सिद्धि से कोई प्रयोजन नहीं है। मेरे पास जो बीस रुपये हैं, वही पर्याप्त है। उनके द्वारा ही मैं व्यापार करता हुआ गृहस्थोचित श्रावकधर्म का परिपालन करूंगा। अधिक परिग्रह तो अन्ततः दुःख का कारण है । " जिनवल्लभ ने विचार किया कि इसकी जन्मकुण्डली और हस्त रेखा से विदित होता है कि इसके द्वारा भव्य पुरुषों में धर्म-वृद्धि होगी । गणदेव की वक्तृत्व-शक्ति उत्तम थी, इसीलिए उसे धर्म-तत्वों का उपदेश देकर धर्म-प्रचार के लिए बागड़ देश की ओर भेजा । स्व-निर्मित " कुलक" लेखों का भी उसे अध्ययन करा दिया, जिनके द्वारा उसने वहाँ लोगों को विधिमार्ग का पूर्ण स्वरूप बताकर अनेक लोगों को खरतरगच्छीय मन्तव्यों का अनुयायी बना दिया । जिनवल्लभ की प्रवचन शक्ति अत्यन्त प्रभावोत्पादक और विलक्षण थी। उनका प्रवचन श्रवणार्थ अनेक प्रातिभ विद्वान आया करते थे । जब जिनवल्लभ विक्रमपुर के अंचलों में विचरण कर रहे थे, उसी समय वे मरुकोट्ट भी पहुंचे। वहाँ जिनवल्लभ ने गणि धर्मदास कृत उपदेशमाला की निम्नांकित गाथा पर छः मास तक व्याख्यान दिया संवच्छरमुसभजिणो, छम्मासा वद्धमाणजिणखन्दो | इय विहरिया निरसणा, जइज एओवमाणेणं ॥ जिनवल्लभ की स्पष्टवादिता भी आश्चर्यचकित करने वाली थी । एक दिन प्रवचन क्रम में निम्नोक्त गाथा आई धिजाईण गिहीणं जाणं, (जई) पासत्थाईण वावि दटठूणं । जस्स न मुज्झई दिट्ठी, अमूढदिट्ठि तय बिंति ॥ १५६
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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