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निर्मापित विधि चैत्यों का प्रतिष्ठा समय शक संवत् १०२८ अर्थात् विक्रम संवत् ११६३ निर्दिष्ट किया है। जिसके आधार पर महोपाध्याय विनयसागर ने अनुमान किया है कि वि० सं० ११५८ और ११६० के पूर्व ही जिनवल्लभगणि गुजरात से चलकर चित्तौड़ आये और वहाँ रहते हुए तत्रस्थ श्रेष्ठियों को आयतन विधि (विधिपक्ष) का उपासक बनाया एवं उपदेश देकर नूतन विधि चैत्यों का निर्माण करवाया। इसी बीच अर्थात् वि० सं० १९६० के आसपास चित्तौड़ में ही महावीर स्वामी की षट् कल्याणकों का सैद्धान्तिक रूप से प्रतिपादन किया गया होगा।
एकदा मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को शास्त्राध्ययन करने के लिए जिनवल्लम के पास भेजा। जिनवल्लभ भी उनको अधिकारी समझकर सिद्धान्तों की वाचना देने के लिए सहमत हो गए। यद्यपि प्रत्यक्ष में तो वे सिद्धान्त वाचना के लिए आये थे, किन्तु परोक्षतः वे एक षड़यन्त्र का आयोजन कर रहे थे। अतः वे सर्वदा जिनवल्लभ का अहित ही सोचा करते थे। उनके श्रावकों को बहकाने के विचार से वे उनसे प्रीति व्यवहार करने लगे। एक दिन उन्होंने अपने गुरु मुनिचन्द्राचार्य को एक पत्र लिखा और उस पत्र को एक पुस्तक में रख दिया। वाचना ग्रहण करते समय वह पत्र पुस्तक से गिर पड़ा। जिनवल्लभ की दृष्टि उस पत्र पर पड़ गई । बस सारा भण्डाफोड़ हो गया। उस पत्र में लिखा था कि गणि जिनवल्लभ के कई श्रावकों को तो हमने अपने अनुकूल कर लिया है। कुछ दिनों में ही अपने अधीन सबको कर लेने का दृढ़ संकल्प है। जिनवल्लभ को उनकी मनोवृत्ति पर खेद हुआ और उनके मुख से अनायास ही निकल पड़ा
आसीज्जनः कृतघ्नः क्रियमाणघ्नस्तु साम्प्रतं जातः।
इति मे मनसि वितर्को भविता लोक-कथं भविता॥ १ वीर चैत्य प्रशस्ति, पद्य ७८ २ वल्लभ-मारती, पृष्ठ Ye
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