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का नाम श्रीपति था। दोनों माई कुशाग्र बुद्धि-सम्पन्न एवं प्रतिभावान्, थे। उन्होंने उच्चस्तरीय अध्ययन किया। देश-भूमण की भावना से वे घूमते-घूमते धारा, नगरी पहुँचे जो उस समय का महासांस्कृतिक केन्द्र था। उस नगर के राजा अधिकारीगण एवं नागरिकगण आदि. विद्या तथा विद्वान् दोनों का सम्मान करते थे। ..
उसी नगर में जैन धर्मानुयायी एक श्रेष्ठि रहता था, जिसका नाम लक्ष्मीपति था। ये दोनों भाई उसी श्रेष्ठि के यहाँ पहुँचे। लक्ष्मीपति दोनों की आकृति एवं प्रकृति से अत्यन्त प्रभावित हुआ और उन्हें नित्य भोजन कराने लगा। उन दिनों लेखे-जोखे मकान या दुकान की दीवारों पर लिखने की प्रथा थी। उन दोनों भाइयों ने उन लेखों को दिवाल पर लिखा हुआ देखा। उनकी स्मरणशक्ति इतनी प्रखर थी कि पढ़ते ही सारा लेख उनके मस्तिष्क पर अंकित हो गया।
संयोगवश लक्ष्मीपति के भवन में आग लग गयी, जिससे भवन को अत्यधिक क्षति पहुँची। सर्वाधिक क्षति तो यह हुई कि अग्निकाण्ड में वह दीवार नष्ट हो गई, जिस पर लेखा अंकित था। जब दोनों भाइयों ने उन लेखों को अक्षरशः सुना दिया तो लक्ष्मीपति उनकी विद्या से बहुत प्रभावित हुआ और उनका आदर-सत्कार भी अधिक होने लगा।
एक दिन लक्ष्मीपति ने इन दोनों भाइयों को आचार्य वर्द्धमानसूरि का दर्शन कराया। आचार्य इन दोनों भाइयों से प्रभावित हुए और दोनों भाई भी आचार्य से अत्यन्त ही प्रभावित हुए। परस्पर आकर्षण हो जाने के कारण दोनों भाई प्रतिदिन आचार्य के पास जाया करते थे और उनके साथ तात्त्विक चर्चा किया करते थे। सत्संग का रंग चढ़ा। दोनों भाइयों ने अपने को श्रमण-पथ पर नियोजित कर दिया। इन्होंने जैन आगमों का मनोयोगपूर्वक अध्ययन किया और