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________________ 11/12 An ideal example of affection between the two brothers. अहिमाणिउ गउ घरु परिहरेवि कम्मद्गु दुक्ख-संतत्तु जाम इक्कहिं दिणि सिरि विलसंतएण पवराणुंधरिहे थणंधएण वलि किउ हउँ णिग्घिणु पावकम्मु का गइ पावेसमि इय भणेवि विण्णत्तउ परवइ तक्खणेण मइँ मुक्खें भायरु घरहो देव एव्वहिँ जइ विरयहि महु पसाउ तं सुणिवि णिसिद्धउ णरवरेण लहु भायर-चरिउ स मणि धरेवि।। मरुभूइ वि थिउ णियगेहि ताम।। सुमरिउ भायरु उवसंतएण।। अणुएण पढमु णेहंधएण।। भायरु वि णिक्कालिउ हणिवि धम्मु।। रोवंतें जणविभउ जणेवि।। णेहुब्मव दुक्खाउल मणेण।। तइयहँ णिक्कालिउ भुवण सेव।। आणमि ता णरवइ पढमु भाउ।। माणिह स-सत्तु सकरुण सरेण ।। घत्ता- राएण णिसिद्ध वि अवगुण बिद्ध वि गउ मरुभूइ सिणेहें। भायरहो गवेसउ अमुणिय देसउ घरु मिल्लिवि हय को]।। 196 ।। 11/12 धातृ-स्नेह का आदर्श उदाहरणवह अभिमानी कमठ अपने छोटे भाई मरुभूति की करतूतों को अपने मन में धारण किये हुए दुख से सन्तप्त होता हुआ जब घर छोड़कर निकल गया तब वह मरुभूति भी दुखीमन से अपने घर में ही स्थिर रहने लगा। अन्य किसी एक दिन भोगेश्वर्यों का विलास करते हुए जब उसका मन कुछ शान्त हुआ तब उसे अपने भाई (कमठ) का स्मरण आया और विचार करने लगा कि प्रवर पण्डिता अनुन्धरी के प्रथम पुत्र कमठ के स्नेह में अन्धे रहने वाले मुझ जैसे अनुज ने यह क्या कर डाला, धर्म का हनन कर अपने भाई कमठ का निर्वासन करा दिया? मैं सचमुच ही निघृण्य एवं पाप कर्मी हूँ। अब आगे मेरी क्या दुर्गति होगी? यह कहकर वह रोने लगा। लोग भी उसे देखकर विस्मित हो उठे। स्नेह से उत्पन्न तथा दुख से आकुल-व्याकुल मन वाले उस मरुभूति ने तत्काल ही जाकर राजा से विनती की और कहा- हे भुवन-सेव्य देव, मुझ मूर्ख ने रण-क्षेत्र से लौटते ही अपने भाई को घर से निकलवा दिया था। अब हे नरपति, आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए, जिससे कि मैं अपने ज्येष्ठ भ्राता को वापिस घर ले आऊँ। मरुभूति का कथन सुनकर राजा ने करुणा भरे स्वर से निषिद्ध करते हुए कहा कि अपने उस शत्रु को वापिस मत लाओ। घत्ता- राजा द्वारा निषिद्ध किये जाने पर भी, कमठ के अवगुणों से बिद्ध (जख्मी) होने पर भी अपने भाई से स्नेहाबिद्ध होने के कारण अपने क्रोध का त्याग कर उसके देश का अता-पता ज्ञात न होने पर भी वह उसकी खोज में निकल पड़ा।। 196।। 228 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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