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________________ 9/21 The Demon-king (Kamatha) ultimately repents for his misdeeds and accepts asceticism. केवलणाण पुज्ज विरएविणु थोत्त सहासइ उच्चरेविणु।। कियउ गमण णिय-मंदिरि जावेहि भत्ति भार पणविय सिरु तावेहि।। उट्ठिउ कमठासुरु विलवंतउ हाहाकार सिरेण णवंतउ।। हा मइँ दुढिं किंपि ण जाणिउ महियए पासणाह अवमाणिउ।। हउँ पाविट्ठ देउ दुह-णासणु हउँ णिग्घिणु जिणु तिहुअण सासणु ।। मइँ जाएव्वउ णरय णिवासए जिणवरेण सिवपुर वर सासए।। ए जाणेवि जिणवरु विण्णत्तउ दुविह तवाणल सिहि संतत्तउ।। ज उवसग्गु देव मइँ विहियउ तुह दुल्लहु दंसणु णिम्महियउ।। तं परमेसरु मज्झु खमेज्जहि दय करिजहिँ अप्पणु तहिँ णिज्जहिँ।। इय भणेवि छुडु णिम्मल चित्तें पडिगाहिउ सम्मत्तु पवित्।। पाव गंढिता तक्खणि णियलिय जा उवसग्ग विहाणे सुवलिय।। जिणवर-सासणि थिउ णीसंकिउ दंसण रयणाहरणालंकिउ।। घत्ता- पुणु-पुणु णट्टलु तय सिरिहर पय वंदइ। भत्तिए कमठासुरु भविय चित्तु आणंदइ।। 165 ।। 9/21 कमठासुर अपने पापों का प्रायश्चित करता है और जिन-दीक्षा ले लेता है–केवलज्ञान की पूजा की तथा सहस्रों स्तोत्रों का उच्चार (पाठ-स्तुति) किया। पुनः भक्तिभाव से विधिपूर्वक सिर झुकाकर नमस्कार किया और जब उन्होंने अपने-अपने भवनों की ओर प्रस्थान किया, तभी वह कमठासुर हाहाकार करता हुआ सिर झुकाए विलाप करता हुआ उठा और बोला- हाय, हाय, दुष्टमति मैंने कुछ भी न समझा और पार्श्वनाथ को मैंने अपमानित किया। मैं पापिष्ठ हूँ और पार्श्व देव दुख-नाशक हैं। मैं निर्दयी हूँ और वे पार्श्वजिन त्रिभुवन के शासक हैं। मुझे तो नरक निवास के लिये जाना है और जिनवर पार्श्व को शाश्वत शिवपुर (मोक्ष) को जाना है। __यह जानकर विविध तपानल की शिखा से संतप्त उन जिनवर पार्श्व से उसने विनती की कि दुर्लभ-दर्शन वाले हे देव, मैंने आप पर जो भी उपसर्ग किये हैं, और कष्ट पहुँचाए हैं उनके लिए हे परमेश्वर, मुझ पर दया कीजिये, मुझे क्षमा कर दीजिये तथा आप जिस मार्ग में हैं, मुझे भी उसी में लगा दीजिए। यह कहकर उसने जो उपसर्ग किये थे उन पापों का प्रायश्चित किया। अपना चित्त पवित्र एवं निर्मल किया और तत्काल ही सम्यक्त्व व्रत धारण कर लिया। इस प्रकार वह कमठासुर निःशंकभाव से सम्यदर्शन रूपी रत्नाभरण से अलंकत होकर जिनवर के शासन में स्थित हो गया। घत्ता- इस प्रकार उस कमठासुर ने साहू नट्टल (इस ग्रंथ-लेखन के लिये आश्रयदाता) तथा ग्रंथ के लेखक कवि विबुध श्रीधर के समान ही भव्यजनों के चित्त को आनन्दित करने वाली, पार्श्व प्रभु के श्री चरणों में भक्ति पूर्वक वन्दना की।। 165।। पासणाहचरिउ :: 195
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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