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________________ 6/9 Being resented on PārŚwa's utterances and with the view to curse him indignant hits on the wooden log by a sharp axe. पंचग्गि मज्झे अमुणंतु कट्ठ अण्णाण-तवेण अखंड कद्द। जा घिवइ धूलिधूसरिय गत्तु गउरीस पाय-पंकरुह भत्तु।। ता लहु तिलोयवइणा पउत्तु मा घिवइ दारु जडबुद्धि जुत्तु। तउ गुरउ जाउ दुरसणु सरोसु अंतरे एयह भीसणु सदोसु।। तं सुणेवि फरसु भासिउ मणेण कमठु कयंतु व कुवियउ खणेण। कहँ गुरउ महारउ गुण-गरिट्ठ णीसेस तवसि संतइ वरिट्ठ।। कहँ पवणासणु भीसणु सदप्पु संजायउ सविसु सरोसु सप्पु। एउ वयणु पयंपिउ जं अणेण णरवइणा तं अहियत्तणेण।। मण्णमि किं बहुणा भासिएण रोसेण लोयसंताविएण। एयहो देक्खंतहो एउ दारु दारेविण देक्खमि उरउ फारु।। किं अत्थि णत्थि जइ ता जणाहँ पेक्खंतहँ दूसमि थिरमणाहँ। पच्छा रूसेप्पिणु देमि साउ तह जह दवत्ति खउ जाइ राउ।। घत्ता–एउ चिंतेवि सरोसें पयणिय दोसे करयले करेवि कुठारउ । सविस विसहर कट्ठहो तरु पब्मट्ठहो कम दिण्णु पहारउ।। 104 ।। 6/9 पार्व के कथन से रुष्ट होकर तथा उन्हें शाप देने का विचार करता हुआ क्रोधित कमठ लक्कड पर तीक्ष्ण कुठार चलाता हैपंचाग्नि-तप से होने वाले कष्टों पर ध्यान दिये बिना ही धूलि-धूसरित-गात्र वाले तथा शंकर जी के चरण-कमलों का परमभक्त वह कमठ अपने अज्ञानता पूर्ण तप के लिये बिना कटा अखण्ड लक्कड़ जब पंचाग्नि कुण्ड में झोंकने लगा, तभी त्रैलोक्यपति कुमार पार्श्व ने उससे (भर्त्सना पूर्ण स्वर में) तत्काल कहा- हे जड़बुद्धि, अग्नि कुण्ड में उस अखण्ड लक्कड़ को मत झोंक, क्योंकि इसके भीतर अत्यन्त भीषण दुष्ट एवं क्रोधी स्वभाववाला एक नाग है, जो पूर्वजन्म का तेरा गुरु है। कुमार पार्श्व का यह कठोर कथन सुनकर वह कमठ तत्क्षण ही कृतान्त के समान क्रोधित हो उठा और बोलाकहाँ तो हमारा महार्घ्य गुण-गरिष्ठ एवं समस्त तपस्वियों में वरिष्ठ महान् गुरु और कहाँ पवन-भोजी, भीषण, दीला, भयंकर विषधारी एवं क्रोधी सर्प (अर्थात् हमारा महान् गुरु सर्पयोनि में जन्म कैसे ले सकता है) (यह सर्वथा असम्भव है। फिर वह अपने मन में सोचता है कि-) नरपति पार्श्व ने अधिकार रूप में जो वचन कहे हैं, उन्हें मैं (थोड़े समय के लिये) मान लेता हूँ और अधिक कहने से क्या लाभ ? यही मानकर लोक को सन्तापित करने वाले क्रोध में भरकर देखते ही देखते इस लक्कड (दारु) को चीरकर मैं उस विशाल उरग (भुजंग) को देखू तो कि उसमें वह है भी अथवा नहीं। यदि नहीं निकला, तो स्थिर मन में (एकटक होकर) देखने वाले लोगों के समक्ष मैं इस (पार्श्व) को दोष दूंगा और बाद में क्रोधित होकर मैं उसे ऐसा शाप दूंगा कि जिससे कि वह राजा (पाव) तत्काल ही क्षय को प्राप्त हो जाय । घत्ता- ऐसा विचार कर, उस तापस कमठ ने रोषपूर्वक (पार्श्व को) दोष लगाते हुए तीक्ष्ण कुठार अपने हाथ में लेकर, वृक्ष से काटकर लाये गये विषधर भुजंग युक्त उस लक्कड पर तीक्ष्ण प्रहार किया। (104) पासणाहचरिउ :: 121
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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