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________________ साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य ४५ ही हैं । अन्तर केवल इतना है कि जैन चरित पुराणों में एक से अधिक महापुरुषों का चित्रण मिलता है तथा इन चरित-पुराणों में 'धर्मकथा' के तत्त्व अधिक तथा काव्य के तत्त्व अल्प पाये जाते हैं। इसके विपरीत अलंकृत शैली के चरित ग्रन्थों में प्रायः एक ही महापुरुष का अथवा उसके अनेक भवों का चित्रण प्राप्त होता है। कथानक सीमित होने के कारण अलंकृत शैली के चरित ग्रन्थों में काव्य के तत्त्वों के विकास के लिए अधिक अवसर प्राप्त हो जाते हैं । चरित पुराणों की विषय-सामग्री भी अलंकृत शैली के चरितों की अपेक्षा परिमाण में अधिक होती है । अत: चरितपुराण बृहदाकार तथा अलंकृत शैली के चरित लघ्वाकार होते हैं। डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने भी पुराणों में ६३ महापुरुषों का चरित्र-चित्रण तथा अलंकृत शैली के चरितों में केवल एक ही पुरुष के चरित्र-चित्रण की विशेषता को स्वीकार किया है। पुराणों में बहुनायकत्व तथा चरितों में एक नायकत्व का होना भी इनकी उल्लेखनीय विशेषता है । अलंकृत शैली के चरित ग्रन्थों के कथानक प्रायः पूर्वापर जन्मों से सम्बद्ध रहते हैं । अत: एक ही काव्य में शृङ्गार प्रादि विविध रसों-भावों का समावेश कर जहाँ एक अोर वासनात्मक एवं सौन्दर्यात्मक काव्य पक्ष पुष्ट हुआ तो दूसरी ओर वासना की तुच्छता को चुनौती देते हुए नायक को श्रेयस की ओर अग्रसर करते हुए जैन संस्कृत कवियों ने सहृदयता एवं आध्यात्मिकता दोनों पक्षों को समान महत्त्व दिया है। यह समझना चाहिए कि जैन महाकाव्यों का लेखक सहृदय कवि से प्रकस्मात् एक कठोर दार्शनिक का रूप ग्रहण कर लेता है। __महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों की कसौटी पर चरितार्थ होने वाले जैन संस्कृत अलंकृत महाकाव्यों के अन्तर्गत आने वाले चरित नामान्त महाकाव्यों में (१) जटासिंह नन्दिकृत-वराङ्गचरित (८वीं शती ई०), (२) महासेनकृत-प्रद्युम्नचरित (९७४ ई०), (३) वीरनन्दिकृत-चन्द्रप्रभचरित (६७५ ई०), (४) असगकृतवर्धमानचरित (१०वीं शती), (५) वादिराजसूरिकृत-पार्श्वनाथचरित (१०२५ई०), ६. मुनिभद्रकृत –शान्तिनाथचरित (१४वीं शती ई०) आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं , (२) जैन संस्कृत चरितेतर महाकाव्य जैन कवियों ने ऐसे महाकाव्यों की भी रचनाएं की जिनके नाम के अन्त में 'चरित' का प्रयोग नहीं होता। वास्तव में चारितिक शैली का चरितेतरनामान्त महाकाव्यों पर भी पूरा पूरा प्रभाव है। अन्तर केवल इतना है कि चरितनामान्त महाकाव्यों में चारित्रिक अभ्युत्थान के प्रति कवि का अधिक झुकाव रहता है किन्तु १. राजनारायण पाण्डेय, महाकवि पुष्पदन्त, जयपुर, १६६८, पृ०६८ २. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य०, पृ० १६
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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