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________________ साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य विधा एक महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में प्रादुर्भूत हुई है तथा तीनों धारामों के मादिकाव्यों के प्रथम संस्कृत ग्रन्थ भी महाकाव्य ही रहे हैं, उदाहरणार्थ वैदिक प्रयवा ब्राह्मण संस्कृति की 'रामायण', जैन संस्कृति का 'पद्मचरित' तथा बौद्ध संस्कृति का 'बुद्ध चरित' अथवा 'सौन्दरनन्द' अपनी-अपनी संस्कृति के प्रादि महाकाव्य हैं। जैन संस्कृति के अग्रदूत के रूप में भी जैन संस्कृत महाकाव्यों की भूमिका भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी ब्राह्मण संस्कृति के सन्दर्भ में 'रामायण' 'महाभारत' तथा 'रघुवंश' 'किरात' आदि की। ऐसा मानना चाहिए कि जैन संस्कृत महाकाव्य दीर्षकाल से अपनी संस्कृति एवं सभ्यता के अनुरूप सामाजिक मूल्यों को मुखरित करने के लिए भूमिका का निर्माण करने में प्रयत्नशील थे। पुराण पुरुषों की मौखिक गाथाएं जैन समाज में प्रचलित थीं।' इन महापुरुषों के आदर्श चरित्रों में पाई जाने वाली शौर्यपूर्ण गाथाओं, जैन धर्म एवं दर्शन आदि तत्त्वों ने जैन संस्कृत महाकाव्यों को वर्णनात्मक स्वरूप प्रदान किया।२ इनके अतिरिक्त राम एवं कृष्ण को त्रिषष्टिशलाका पुरुषों में क्रमशः पाठवें तथा नौवें बलभद्र के रूप में भी स्थान प्राप्त है। इस प्रकार से रामकथा एवं पाण्डवकथा का प्रभाव भी जैन महाकाव्यों पर पड़ा । यह सर्वविदित ही है कि रामकथा एवं पाण्डव कथा की भारतीय जनजीवन में गहरी छाप थी। जैन कवि भी जन-मानस की इस रुचि की कदापि उपेक्षा नहीं करना चाहते थे। परिणामस्वरूप जैन संस्कृत महाकाव्यों में जैनानुमोदित रामकथा एवं पाण्डवकथा को भी विशेष स्थान दिया गया। इस प्रकार सामाजिक आवश्यकता को देखते हुए तथा श्रमण परम्परा का भी पालन करते हुए जैन संस्कृत महाकाव्यों का तीन धाराओं में विकास हुआ-१. विषिष्ट शलाका पुरुषों की परम्परा, २. रामकथा की जैनानुमोदित धारा, तथा ३. पाण्डवकथा की धारा। जैन पुराण : विकसनशील महाकाव्यों के रूप में जैन संस्कृति में प्राचीन आख्यानों को 'पुराण' संज्ञा दी गई है ।५ दिगम्बर परम्परा के अनुसार जिसमें एक शलाका पुरुष का वर्णन आता है उसे 'पुराण' संज्ञा १. चन्द्रप्रभचरित, भूमिका, ए. एन. उपाध्ये तथा हीरालाल शास्त्री, पृ० II २. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, वाराणसी, १९६८, पृ० १६ ३. Winternitz, M., Jainas in Indian Literature (article), Indian Culture, Vol. I, Oct. 1934, p. 148 ४. वही, पृ० १४८-४६ ५. 'पुरातनं पुराणं स्यात् ।'--प्रादिपुराण, १.२१
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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