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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
द्वारा वर चयन की प्रमुख योग्यताओं में पारस्परिक सौन्दर्याकर्षण, भावी दाम्पत्य जीवन के प्रेम व्यवहारों में दक्ष होने की योग्यता तथा वीर एवं पराक्रमी होना प्रत्याशी राजकुमार की उल्लेखनीय विशेषताएं मानी जाती थीं। सभी प्रामन्त्रित राजकुमार अपनी चतुरङ्गिणी सेना के साथ राजकुमारी के नगर में जाते थे। स्वयंवर में निराश हुए राजकुमार प्रायः विजेता राजकुमार के साथ युद्ध भी करते थे। इस प्रकार स्वयंवर विवाह के पीछे भी तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियां अपना पूर्ण प्राधिपत्य जमाए हुए थीं। वर चयन के अवसर पर राजकुमारी को प्रआमंत्रित सभी राजकुमारों की राज्य शक्ति आदि से भी परिचित कराया जाता था। राजकुमारी भी प्रायः शक्तिशाली तथा अपने पिता के राज्य के लिए अनुकूल एवं उपयोगी राजकुमार का ही चयन करती थी। धर्मशर्माभ्युदय का धर्मनाथ इसी प्रकार का राजकुमार था।
३. पूर्वाग्रहपूर्ण स्वयंवर विवाह
__ ऐसा लगता है कि आलोच्य युग में वर चयन के लिए कभी कभी कन्या पक्ष को असमंजसता की स्थिति का सामना भी करना पड़ता था। कन्या यदि सङ्गीतादि कला में विशेष दक्ष हो तो उसके लिए वर भी सुयोग्य ही होना चाहिए, इस मान्यता के फलस्वरूप कन्या पक्ष की ओर से किसी शर्त-पूर्ति के पूर्वाग्रह द्वारा वर का चयन किया जाता था।५ क्षत्रचूड़ामरिण में राजकुमार जीवन्धर ने ने राजकुमारी गन्धर्वदत्ता को वीणावादन में पराजित कर उसके साथ विवाह किया।' गोविन्दराज की कन्या लक्ष्मणा का विवाह भी उसी राजकुमार जीवन्धर से हुमा क्योंकि राजकुमार जीवन्धर ने चन्द्रकयन्त्रस्थ तीन शूकरों का भेदन किया जो अन्य राजकुमार नहीं कर पाए थे। इसी प्रकार समस्यापूर्ति करने एवं पहेलियाँ बूझने तथा किसी अन्य प्राकस्मिक घटना के घटने प्रादि निमित्तों से सशतं विवाह करने की विशेष प्रथाएं भी प्रचलित थीं।
१. धर्म०, १७.३३-३५ २. वही, ६.५६ ३. बही, १७.३३-८० ४. वही, १७.६५-८० ५. उत्तरपुराण, ७५.४२३, ६४५ ६. क्षत्रचूड़ामणि, ४६.६ ४३ ७. वही, १०.२३-२६ ८. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास में, पृ० ५४५-४६