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________________ १८ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज आदि के प्रति मानव स्वभाव की विशेष प्रवृत्ति देखी जाती है । शनैः शनैः कवियों SAT पर ये प्रवृत्तियां ही साहित्य के रूप में प्राविर्भूत हो जाती हैं । इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि इन सभी कार्यों को मनुष्य सामूहिक रूप से करता है । सामूहिक प्राग्रह ही किसी कवि विशेष को काव्य निर्माण के लिये प्राकृष्ट एवं प्रेरित करता है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि मनुष्य में सर्वप्रथम ' समूह' की भावना आई होगी। मनुष्य की प्राद्य अवस्था जिसे पाषाण युग (Old Stone Age) के नाम से जाना जाता है, अधिक विकसित नहीं थी । खुङ्खार पशुओं का शिकार करना उसका प्रमुख व्यवसाय था । यह व्यवसाय ही उसके जीवन का प्रयोजन भी बन चुका था । उदर-पूर्ति के लिए वह इस भयङ्कर कार्य के लिए एक प्रकार से विवश भी था । यह भी सम्भावना स्वाभाविक ही जान पड़ती है कि उसके सह व्यवसायी अन्य लोग भी यदा-कदा उसके सम्पर्क में १ ते होंगे। एक ही उद्देश्य वाले विविध लोगों में एकता एवं सामूहिकता के तत्त्व तो श्रा ही जाते हैं । पाषाण युग में भी मनुष्य समूहों में रहकर ही भयङ्कर पशुओं आदि का सामना कर सकता था । ऐसी दशा में हर्ष एवं दुःख के विविध अवसरों पर उसके साथियों का सान्निध्य भी उसे प्राप्त था । ये लोग हर्षावसरों पर नृत्य गीतादि द्वारा अपना मनोरञ्जन भी करते थे और दुःख के समय एक दूसरे की सहायता भी करते थे । समाज की प्राद्य अवस्था की यही कहानी रही होगी जिसमें साहित्य एवं समाज दोनों अङ्कुर विद्यमान थे । जैसे-जैसे मानव सभ्यता विकसित होती गई, समाज के मूल्यों के अनुसार उनके मनोरञ्जन का स्तर भी उसी अनुपात से विकसित होता रहा । परिणामतः प्राग्वैदिक सभ्यता अर्थात् सिन्धु घाटी की सभ्यता में मानव पूर्ण रूप से विकसित हो चुका था । रहन-सहन, धर्म-दर्शन, मनोरञ्जन आदि का सिन्धु घाटी की सभ्यता में स्तर पर्याप्त ऊंचा था । हम ऐसा भी अनुमान लगा सकते हैं कि इस सभ्यता में उत्कृष्ट साहित्य का निर्माण भी हुआ होगा किन्तु अनुपलब्ध प्रमारणों के आधार पर इस विषय में और अधिक कुछ कहना प्रासङ्गिक न होगा | साहित्य का उत्कृष्ट एवं संशोधित स्वरूप वैदिक साहित्य में देखा जा सकता है । ऋग्वेद जैसी विश्व की प्राचीनतम उत्कृष्ट साहित्य रचना यह सोचने के लिए बाध्य करती है की ऋग्वेद से पूर्व की साहित्य रचना भी निःसन्देह सुन्दर रही होगी । नृत्य गीतादि से अकस्मात् ही ऋग्वेदकालीन काव्यसुषमा का आविर्भाव नहीं हो सकता । अतः ऋग्वैदिक काव्य साधना मानव सभ्यता के निरन्तर अभ्यास का परिणाम थी । भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, दिल्ली, १७३, पृ० २१६ २. वही, पृ० ६२ १.
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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