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स्त्रियों की स्थिति तथा विवाह संस्था
४६३ श्रमणी का उपाध्याय तथा पाँच वर्ष का निर्ग्रन्थ साठ वर्ष की श्रमणी का प्राचार्य हो सकता है।'
जैन आगमों में नारी का महत्त्व तथा उसके प्रशंसापरक तथ्यों के उल्लेख भी खोजे जा सकते हैं। इन में ब्राह्मी, सु-दरी, चन्दना, मृगावती आदि ऐसी नारियों की भी चर्चा मिलती है जिन्होंने सांसारिक विरक्ति को प्राप्त कर साधना मार्ग से लोकोपकार किया था। भगवान् महावीर की शिष्या आर्य चन्दना के नेतृत्व में एक विशाल साध्वी वर्ग द्वारा सम्यक चारित्र का पालन किया गया। कौशाम्बी के राजा शतानीक की बहिन जयन्ती ऐश्वर्यपूर्ण जीवन को त्याग कर साध्वी बन गई थी। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार मल्ली कुमारी ने स्त्री होकर भी तीर्थङ्कर की पदवी प्राप्त की3 परन्तु दिगम्बर परम्परा स्त्री मुक्ति का निषेध करती है तथा मल्ली को मल्ली कुमार के रूप में पुरुष तार्थङ्कर ही मानती है।
वस्तुत: जैन प्रागमों के युग में नारी दासता के अभिशाप से निम्न वर्ग की स्त्रियां अत्यधिक संत्रस्त थीं।५ पिण्डनियुक्ति में आई एक कथा के अनुसार छोटी-मोटी कर्जदारी हो जाने पर स्त्री को दासता स्वीकार करने के लिए विवश हो जाने का उल्लेख भी पाया है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में नारी अराजकता की दयनीय स्थिति को सुधारने की अपेक्षा से विवाह संस्था की वैधानिकता पर अधिक बल दिया गया है।' निम्नवर्ग की स्त्रियों की आर्थिक दशा को सुधारने की अपेक्षा से उन्हें गुप्तचर विभाग आदि में नियुक्त करने का प्रावधान भी किया गया। सिद्धान्त रूप से कौटिल्य नारी को एक निश्छल प्राणी मानते हैं।
१. व्यवहार०, ७.१५-१६; ७.४०७ २. जगदीश चन्द्र जैन, जैन पागम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० २५२-५३ ३. ज्ञातृधर्म कथा, ८ तथा कल्पसूत्र टीका २ ४. जगदीश चन्द्र जैन, जैन प्रागम साहित्य में भारतीय समाज, प० २५०,
पा० टि० ४ ५. कोमलचन्द जैन, बौद्ध तथा जैन आगमों में नारी, पृ० १८३ ६. पिण्डनियुक्ति, ३१७-३१८ ७. अर्थशास्त्र, ३.१.१ ८. कुतो हि साध्वीजनस्य च्छलम् । वही, ३.४.११