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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज विभिन्न प्रकार के ढांचों से चित्रकारी करना भी इस युग की एक रोचक विशेषता रही थी । प्रायः घोड़े, हाथी, रथ, तथा इनके प्रारोही, सिंह, व्याघ्र, हंस आदि की आकृतियां इन पत्तियों में बनी रहती थीं।' स्तम्भों पर भी स्त्री तथा पुरुषों के युगल चित्र उत्कीर्ण होते थे। सोने तथा वैडूयमणियों आदि की संयोजना से भी चित्रकारी को आकर्षक रूप प्राप्त था। इन्द्रकूट मन्दिर में जड़े गए कमल सोने के बने थे किन्तु उनके नाल-दण्ड वैडूर्य मणियों से निर्मित थे । कलाकार सौन्दर्य तत्त्व के विशेष पारखी होते थे। स्वर्ण-कमलों पर गूंजन करते हुए महेन्द्र नीलमणियों से बनी भ्रमरों की पंक्तियों से सुशोभित चित्रकला द्वारा मन्दिरों की दीवारों को विशेषरूप से सुसज्जित किया जाता था ।४
___ महलों की भित्तियों पर भी स्त्रियों तथा पुरुषों आदि के चित्र अंकित होते थे । ये चित्र सजीव से जान पड़ते थे। ऐसी अवस्था में प्रथम बार आई वधू द्वारा उपस्थित लोगों के भय से गाढ़ालिंगन न करने की कविकल्पना तत्कालीन चित्रकला की उत्कृष्टता की ही द्योतक है ।५ महलों की भित्तियों पर चमकीले पत्थरों द्वारा भी चित्रकारी की जाती थी। वेश्याओं के महलों की चित्रकला श्रेङ्गारिक चित्रों से सुशोभित रहती थी।
श्रेङ्गारिक चित्रकला
स्त्रियाँ चित्रकला में विशेष रुचि लेती थीं। उनके द्वारा चित्रकारी करने के
१. हयद्विपस्यन्दनपुङ्गवानां मृगेन्द्रशार्दूल-विहङ्गमानाम् । रूपाणि रूप्यः कनकैश्च ताम्र: कवाटदेशे सुकृतानि रेजुः ।।
-वराङ्ग०, २२.६२ २. तः स्फाटिकर्दम्पतिरूपयुक्त रेजे जिनेन्द्रप्रतिमागृहं तत् ।
- वही, २२.६३ ३. वैडूर्यनालस्तपनीयपद्मः । -वही, २२.६५ ४. महेन्द्रनीलधमरावलीकैः । -वही, २२.६५ ५. निपातयन्ती तरले विलोचने सजीवचित्रासु निवातभित्तिषु । नवा वध्र्यत्र जनाभिशङ्कया न गाढमालिङ्गति जीवितेश्वरम् ।।
-चन्द्र०, १.२७ ६. विभान्ति यस्मिन् बहुधोज्ज्वलोपलप्रणद्धभित्तीनि गृहाणि सर्वतः ।
-चन्द्र०, १.३४ ७. कोशाभिधाया वेश्याया गृहे या चित्रशालिका।
विचित्रकामशास्त्रोक्तकरणालेख्यशालिनी।। -परि०, ८.११५