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शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञानं
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ताण्डव, मयूरासनबन्ध शास्त्रीय नृत्यों के अतिरिक्त नृत्यावसर पर नर्तकी द्वारा तीन गोलकों को उछालते हुए तथा अंगुली के अग्रभाग पर चक्र चलाते हुए विभिन्न प्रकार के आश्चर्यजनक कर्तव्यों के प्रदर्शन करने का वर्णन भी पाया है।' इसी प्रकार वराङ्गचरित, पद्मानन्द प्रादि महाकाव्यों में लास्य, ताण्डव आदि नृत्यों का उल्लेख पाया है।२ वर्धमान चरित में अलसाई हई वधनों द्वारा नत्य करने का वर्णन है।3 पद्मानन्द में स्त्रियों द्वारा मण्डल बनाकर नृत्य करने का वर्णन है। शास्त्रीय दृष्टि से इसे 'हल्लीसक' नृत्य कहा जाता था। स्त्रियों के अतिरिक्त नट-विट आदि भी नृत्य-कला में विशेष दक्ष होते थे। राज्य के महोत्सवों के अवसर पर जनता का मनोरंजन करने के लिए इन नट-विटों प्रादि द्वारा भी आकर्षक नृत्यात्मक अभिनय किया जाता था । ३. चित्रकला
अन्य ललित कलापों के समान चित्रकला की भी उत्कृष्ट स्थिति जैन महाकाव्यों में अङ्कित है । प्रायः लोग चित्रकारी से विशेष प्रेम करते थे। चित्रकारी जन-जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी थी। प्रत्येक धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधि चित्रकला से विशेष संवरी हुई जान पड़ती है । तत्कालीन चित्रकला को वास्तुशास्त्रीय तथा श्रेङ्गारिक चित्रकला के रूप में मुख्यतया निरूपित किया जा सकता है :वास्तुशास्त्रीय चित्रकला
वास्तुकला में चित्रकारी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा था । खज राहो, अजन्ता तथा एलोरा के भित्ती-चित्रों का सौन्दर्य-वैभव चित्रकला के अनुमानित स्वरूप को प्रत्यक्षरूपेण स्पष्ट कर देता है। जैन मन्दिरों में भी इसी प्रकार की चित्रकारी होने के संकेत मिलते हैं। मन्दिरों के द्वारों पर कमल-सुशोभित लक्ष्मी, किन्नर, भूत, यक्ष प्रादि के चित्र बने होते थे। जैन मान्यताओं के अनुरूप तीर्थङ्करों आदि के चित्रों द्वारा भी मन्दिरों के दीवार सुशोभित रहते थे। सोने-चांदी की पत्तियों को काटकर
१. हम्मीर०, १३.१८, २३, २७ २. वराङ्ग०, २३.१०, पद्मा०, ६.१०२ ३. वर्ष०, ६.१८ : ४. पद्मा०, ६.१०२ ५. वराङ्ग०, २३.४७ ६. वराङ्ग०, २२.६१-६५, वर्ध०, १.२०-२२ ७. द्वारोपविष्टा कमलया श्रीरूपान्तयोः किन्नरभूतयक्षाः । तीर्थङ्कराणां हलिचक्रिणां च भित्त्यन्तरेष्वालिखितं पुराणम् ॥
-वराङ्ग०, २२.६१