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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
धनुधिद्या, खड्गविद्या, क्षुरिविद्या, गजविद्या, अश्वविद्या, शस्त्रविद्या तथा वाहनविद्या
आदि का उल्लेख पाया है। युद्ध सम्बन्धी विद्यानों में विशेष नैपुण्य प्राप्त करने के लिए पृथक् रूप से विभिन्न गुरुओं की नियुक्ति की जाती थी । धनुर्वेदादि इन विभिन्न युद्ध विद्यानों की शिक्षण पद्धति को भी दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-१. सिद्धान्तपक्ष तथा २. ब्यावहारिक पक्ष । सर्वप्रथम प्राचार्यों द्वारा उस विद्या विशेष से सम्बन्धित वस्तुओं का लाक्षणिक अथवा परिभाषागत सैद्धान्तिक स्वरूप समझाया जाता था। गजशास्त्र, अश्वशास्त्र प्रादि शास्त्रों के द्वारा उस विद्या के तात्विक स्वरूप को समझ लिए जाने के उपरान्त पुन: राजकुमारों को व्यावहारिक रूप से भी उस विद्या का प्रायोगिक अभ्यास कराया जाता था।' युद्ध विद्या सम्बन्धी शाखाओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
(क) धनुविधा-यह विद्या 'धनुर्वेद'२ के नाम से प्रसिद्ध थी। 'चाप विद्या'3 से भी इसी विद्या की ओर संकेत किया गया है । विविध प्रकार के बाणों को चलाने आदि की शिक्षा 'चापविद्या' के अन्तर्गत आती थी। गुरु राजकुमार को सर्वप्रथम धनुष विद्या को सिखाते हुए चरणविन्यास, ज्यास्फालन, लक्ष्यसन्धान, तथा बाणविसर्जन सम्बन्धी अभ्यास कराते थे।४ चापविद्या के अभ्यास के समय शब्द-वेधी बाणों को चलाना तथा व्यूह रचनाओं में नैपुण्य प्राप्त करना भी आवश्यक था । प्रायः राजकुमार धनुष चलाने में इतने अभ्यस्त हो जाते थे कि ज्यास्फालन के अवसर पर सारा धनुष मुड़कर वृत्ताकार हो जाता था।६ गुणग्राहिता, नमनशीलता, शुद्ध बांस से निर्मित होना आदि उत्कृष्ट धनुष की विशेषताएं मानी गई हैं तो अत्यन्त सीधापन, तीक्ष्णता एवं अधिक लम्बा होना उत्कृष्ट वाण के लक्षण स्वीकार किए गए हैं । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित के अनुसार राधावेधन, शब्दभेदन, जलनिहितलक्ष्यभेदन, चक्रवेधन तथा मृतिकापिण्ड भेदन आदि बाण चलाने के विविध प्रकार के अभ्यास प्रचलित थे ।
१. द्विस०, ३.३६; त्रिषष्टि०, ३.६.२३४-३६ २. त्रिषष्टि०, २.३.३४ ३. द्विस०, ३.३५,३६, ३७; त्रिषष्टि०, २.३.५० ४. पदप्रयोगे निपुणं विनामे सन्धी विसर्गे च कृतावधानम् । —द्विस०, ३.३६ ५. द्विस०, ३.३७ ६. वही, ३.३८ ७. वही, १.४० ८. त्रिषष्टि० २.३.५०