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________________ ४२८ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज महत्त्वपूर्ण व्यवसाय भी शिक्षा के साथ सम्बद्ध थे ।' वास्तुकला.२ तथा अन्य ललित कलाओं आदि का भी समाज में व्यावसायिक महत्त्व विशेष रूप से प्रतिष्ठित था। इस प्रकार मध्यकालीन भारत में जितने भी उच्चस्तरीय अध्ययन विषय थे उनकी केवल मात्र ज्ञानार्जन की दृष्टि से ही नहीं अपितु व्यावसायिक दृष्टि से भी प्रासङ्गिकता बनी हुई थी। राज्य संस्था भी इनकी दक्षता से विशेष लाभान्वित होती थी। ५. उच्चस्तरीय अध्ययन विषय जैन संस्कृत महाकाव्यों के स्रोतों से तत्कालीन समाज में शिक्षा संस्था से सम्बद्ध जिन उच्चस्तरीय अध्ययन विषयों के अध्ययन-अध्यापन सम्बन्धी गतिविधियों की सूचना मिलती है उनका सम्बन्ध किसी एक समुदाय अथवा वर्ग की शिक्षा चेतना से नहीं अपितु शिक्षा संस्था के एकीकृत समग्र रूप से है। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि मध्यकाल में बैदिक परम्परा के अनुसार चली आ रही शिक्षा व्यवस्था समाज में अत्यधिक लोकप्रिय बनी हुई थी। जैनानुयायी भी इस व्यवस्था से जुड़े हुए थे। जैन कवियों की रचनाओं से सहज में ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे रामायण, महाभारत, कालिदास, माघ, भारवि, भट्टि, वाक्पति, हर्ष, बाण की रचनाओं को पढ़ते थे। व्याकरण, नाटक, ज्योतिष, नक्षत्रविज्ञान, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, छन्दशास्त्र आदि का भी जैन विद्वान् विशेष अध्ययन करते थे। आलोच्य काल में उच्चस्तरीय अध्ययन विषयों की अध्ययनपद्धति, पाठ्यक्रम प्रादि की स्थिति इस प्रकार थी १. वेद-वेद के अन्तर्गत चारों वेदों का अध्ययन समाविष्ट होता था १. यद्वाऽश्वहृदयज्ञोऽसि ? गजशिक्षाक्षमोऽसि वा ? कि व्यूहरचनाचार्यः ? कि वाऽसि व्यूहभेदकः ? कि बा रथादिकर्ताऽसि वा ? रथादिप्राजकोऽसि वा ? विचित्रयन्त्रदुर्गादिर्रचनाचतुरोऽसि वा ? -वही, २.६.३३५-३७ २. चैत्यप्रासाद-हादिनिर्माणनिपुणोऽसि वा ? -वही, २.६.३३६ ३. किं वा वीणा प्रवीणोऽसि किं वेणुनिपुणोऽसि वा? पटुः पटहवाद्ये वा ? मर्दले वाऽसि दुर्मद: ? यद्वा वाग्गेयकारोऽसि ? किं शिक्षागायनोऽसि वा ? रङ्गाचार्योऽथवाऽसित्वं किं नाटक नटोऽसि वा ?-वही, २.६.२४१-४२ ४. आदि०, १६.११८: परि०, १३.८; द्वया०, १.१.१२२; १६१, १३.४७, १५. १२०-२१
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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