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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज शास्त्र, मायुध-तुरग-हस्ति-लक्षणशास्त्र, इन्द्रजाल, धातुवाद, धनुर्वेद, पाककला आदि विद्यानों की शिक्षा दी जाती थी।'
शिक्षा का व्यवसायीकरण
प्राचीन भारतीय शिक्षा की विशेषता इसका व्यवसायोन्मुखी होना भी था। सामाजिक परिस्थितियों तथा शैक्षिक मूल्यों का सदैव अभिन्न सम्बन्ध रहता पाया है। मध्यकालीन भारतीय शिक्षा सर्वथा समाजोपयोगी होने के कारण उद्देश्यमक रही थी। हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्य में उपलब्ध एक वर्णन के आधार पर तत्कालीन व्यावसायिक शिक्षा पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । इस वर्णन के सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय शिक्षा वर्णव्यवस्था से भी विशेष रूप से अनुप्राणित थी । ब्राह्मणोचित अथवा क्षत्रियोचित कर्तव्यों के अनुसार शिक्षा ग्रहण करके ब्यक्ति तदनुसार अपने जीवन-यापन योग्य व्यवसाय भी प्राप्त कर सकता था।२ शिक्षा व्यवस्था का वर्णानुसारी होना इसलिए भी स्वभाविक हो गया था क्योंकि जीविकोपार्जन के व्यवसाय वर्णव्यवस्था से अनुप्रेरित थे ।
स्वतन्त्र शाखा के रूप में विद्याओं का विकास
इतिहासकारों ने सम्भावनायें की हैं कि मध्यकालीन शिक्षण संस्थानों में किसी एक विशिष्ट विद्या में दक्षता प्राप्त करना युगीन प्रवृत्ति बन चुकी थी। केवल मात्र युद्ध से सम्बन्धित विभिन्न विद्याओं का ही शिक्षा क्षेत्र में पर्याप्त प्रचलन होने लगा था। इन युद्ध सम्बन्धी विद्यानों में चापविद्या, चर्मविद्या, असिविद्या, प्रासविद्या, गदाविद्या, दण्डविद्या, शक्तिविद्या, मसलविद्या, लाङ्गलविद्या, चक्रविद्या, कृपाणविद्या, बाहुयुद्धविद्या, अश्वविद्या, गजविद्या, व्यूहरचनाविद्या, व्यूहभेदन विद्या, रथसंचालनविद्या, दुर्गरचनाविद्या, प्रादि विद्यायें उल्लेखनीय हैं जिनकी क्षत्रिय वर्ग के लोग विशेष शिक्षा लेते थे। इसी प्रकार वास्तुशास्त्र सम्बन्धी विद्यानों में देवालय-निर्माणविद्या, प्रासादविद्या, हम्यं विद्या, दुर्गनिर्माणविद्या आदि स्वतंत्र विद्याओं के रूप में विकसित होने लगी थीं। सङ्गीत आदि ललित
१. Sharma, Dasharatha, Rajasthan Through the Ages, Vol I, pp.
513-14. २. विप्र-क्षत्रिय-विट-शूद्रवर्णेभ्यः कतमोऽसि भोः ? –त्रिषष्टि०, २.६.२३२,
पण्डितः किं कविः किं वा गन्धर्वः किं नटोऽथ किम् । --वही, २.६.२५५; तथा-वेदादिशास्त्रविज्ञेषु सहाधीतीव तादृशः ।
धनुर्वेदादिविद्वत्सु . तदाचार्यइवाऽधिकः ॥ -वही, २.६.२४८