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________________ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज जब बाद में पूछताछ की तो उसे सभी छात्रों द्वारा प्रशंसित पाया गया । हेमचन्द्र प्रदत्त इस महत्त्वपूर्ण सूचना द्वारा यह भी ज्ञात होता है कि तत्कालीन शिक्षण संस्थाओं में आधुनिक 'अध्यापक - प्रशिक्षरण' सदृश 'अग्रशिष्य प्रणाली' का प्रचलन भी रहा था। तक्षशिला आदि शिक्षण संस्थानों में प्राचार्य की अनुपस्थिति में उसका शिष्य ही गुरुकुल का प्रधान होता था । प्रतिभाशाली छात्रों को अध्यापन कार्य का प्रशिक्षण देना इस प्रणाली का मुख्य उद्देश्य था । विद्यार्थियों के लिए भी यह एक सुप्रवसर समझा जाता था । इस प्रकार प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति में 'अग्रशिष्य प्रणाली' ठीक आधुनिक अध्यापक प्रशिक्षण जैसा कार्य कर रही थी। इस प्रकार क्षिक्षा क्षेत्र में onitorial System का वैज्ञानिक आधार भारतीय शिक्षा की 'प्रशिष्य प्रणाली' में बहुत पहले ही स्वीकार किया जा चुका था । 3 शिष्य की योग्यताएं तथा अयोग्यताएं ४१४ शिष्य की योग्यताओं के विषय में कहा गया है कि उसे सदैव गुरु के प्रति श्रद्धावान् होना चाहिए। विनम्रता, जिज्ञासा वृत्ति, श्रद्धा, सेवा परायणता, श्रवण के प्रति सतर्कता, पठित विषय को ग्रहण करने की योग्यता, पठित वस्तु को सदैव कण्ठस्थ रखने की क्षमता, ऊहापोह, तर्करणा शक्ति, श्रप्रमाद तथा स्वाध्यायरत होना छात्र की आवश्यक योग्यताएँ तथा कर्त्तव्य माने जाते थे । शिष्य के लिए विनयी होना अत्याबश्यक था । ५ शिष्य की अयोग्यताओं एवं दोषों के सम्बन्ध में कहा गया है कि श्रवरणकाल में समझ लेना किन्तु बाद में उपेक्षा करना, श्रवरण तथा श्रवरण में समान बुद्धि अर्थात् जड़ होना, केवल रटन-बुद्धि से वस्तुओं को कण्ठस्थ कर लेना, दूसरे छात्रों की योग्यताओं से ईर्ष्या करना तथा उन्हें क्षति पहुंचाना, किसी भय अथवा लोभ से श्रवण के प्रति जिज्ञासा दिखाने का प्राडम्बर करना किन्तु वास्तव में अध्ययन के प्रति जिज्ञासु न होना, गुण तथा दोषों में से गुणों की उपेक्षा कर दोषों का ही ग्रहण करना आदि शिष्यों की प्रयोग्यताएं तथा दोष माने गए हैं। १. परि०, १२.१६६-६८ २. अल्तेकर, प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति, पृ० १२६ ३. वही, पृ० १२६ ४. शुश्रूषताश्रवरण संग्रहधारणानि विज्ञानमूहनमपोहन मर्थतत्त्वम् । — वराङ्ग०, १.१४; तथा विशेष द्रष्टव्य आदि०, ११६८, १४६ ५. नयेन नेता विनयेन शिष्यः, शीलेन लिङ्गी प्रशमेन साधुः । ६. वराङ्ग०, १.१५; आदि०, १.२६-३२ —पद्मा०, २.२४
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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