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________________ साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य विपरीत ऐन्द्रिक संस्कृति बुद्धि मस्तिष्क को प्रभावित किए बिना ही हमारी इन्द्रियों आदि को प्रभावित करती है । इस संस्कृति का सम्बन्ध व्यावहारिक एवं सामान्य जीवन से अधिक रहता है । ऐन्द्रिक संस्कृति के अन्तर्गत समाज में प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले विविध धार्मिक व्यवहार, क्रियाकलाप, वेश-भूषा आदि तत्त्वों का अध्ययन होता है ।" इस प्रकार समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि में 'संस्कृति' का स्वरूप समाज से अनुप्राणित तो है किन्तु 'समाज' और 'संस्कृति' परस्पर दो भिन्न-भिन्न पहलू हैं | समाज मानव व्यवहारों का वह अमूर्त रूप है जिसमें 'संस्कृति' के तत्त्व गतिशीलता लाते हैं और 'समाज' को परिवर्तन के लिए भी बाध्य करते हैं । दूसरे शब्दों में राज्य, धर्म, शिक्षा आदि मूलतः 'समाज' के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं । - इन तत्वों की सार्वभौमिकता तथा सार्वकालिकता व्यापक होती है तथा प्रत्येक देश का सामाजिक अध्ययन इन्हीं तत्त्वों के आधार पर किया जा सकता है, किन्तु संस्कृति के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता है । संस्कृति प्रत्येक देश की भिन्न-भिन्न हो सकती है | समाजशास्त्रीय दृष्टि से सामाजिक अध्ययन का क्षेत्र सांस्कृतिक अध्ययन की अपेक्षा अधिक सुव्यवस्थित एवं व्यापक होता है । सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की दिशा 'समाज शास्त्र' के विद्वानों के अनुसार सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्य एक दिशा विशेष की ओर गतिमान रहते हैं, स्थिर नहीं । सर्वदा सामाजिक परिवर्तन का मूल कारण सांस्कृतिक चेतना होती है। विचारात्मक एवं ऐन्द्रिक संस्कृतियों में अन्तःक्रिया से विविध युगों में समाज परिवर्तनशील रहता है । इन सामाजिकसांस्कृतिक परिवर्तनों के व्यवस्थित अध्ययन के लिए इतिहास की उपेक्षा भी नहीं की सकती है । इतिहास के द्वारा इन सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को समय एवं घटनाओं के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है । , गत ३००० वर्षों के पाश्चात्य एवं भारतीय इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐन्द्रिक एवं विचारात्मक संस्कृतियों में सदैव संघर्ष होता रहा है । ऐन्द्रिक संस्कृति समसामयिक समाज का जीवन्त रूप होती है तथा विचारात्मक संस्कृति केवल मात्र आदर्श के रूप में समाज को किसी दिशा विशेष के लिए केवल मात्र बाध्य करती है । किन्तु यह बाध्यता ऐन्द्रिक संस्कृति से टकराने पर समाप्त हो जाती है तथा तत्कालीन समाज के समर्थन से मानव सभ्यता स्थिर न रहकर परिवर्तनशील हो जाती है । 'समाजशास्त्र' के अनुसार 'संस्कृति' में सदैव उतार चढ़ाव की प्रक्रिया समरेखीय होती है । समरेखीय का अभिप्राय है – एक समरेखा के रूप में विकसित होने के उपरान्त चरम सीमा तक पहुचते-पहुचते संस्कृति १. तेजमलदक, सामाजिक विचार एवं विचारक, पृ० ३१७ २. वही, पृ० ३१ε
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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