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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
उपायों से परिष्कृत होकर शुद्ध स्वर्ण हो जाते हैं। तीर्थङ्कर द्वारा उपदिष्ट जीवअजीवादि सात तत्वों में श्रद्धान इनकी शुद्धि का उपाय है।'
(ग) मुक्त जीव-ज्ञानावरणी, मोहनीय आदि पाठ कर्मों से मुक्त तीनों लोकों तथा कालों के ज्ञाता, समस्त लोक के हितैषी एवं अर्चना योग्य, प्रात्मस्वरूप से व्याप्त, सांसारिक बन्धनों एवं सुखों से परे अध्यात्मानन्द से परिपूर्ण एवं सांसारिक सन्दर्भो से सर्वथा अव्याख्येय जीव 'मुक्त जीव' (सिद्ध) कहलाते हैं।
२. अजीव
__ स्वरूपतः 'प्रजीव' 'जीव' का प्रतिपक्षी है। इसमें 'जीव' के असाधारण लक्षण घटित नहीं होते । फलतः यह 'उपयोगमयता' से रहित है तथा चैतन्य का इसमें प्रभाव रहता है। इस कारण अजीब जड़ पदार्थ होने के साथ-साथ कर्ताभोक्ता भी नहीं है । किन्तु यह अनादि, अनन्त और शाश्वत है।३ अजीव के पांच भेदों का महाकाव्यों में निरूपण पाया है जो इस प्रकार हैं-१. धर्म, २. अधर्म, ३. काल ४. अाकाश तथा ५. पुद्गल अथवा अणु ।।
___ 'धर्म' द्रव्य गति का कारण है तो 'अधर्म' स्थिति का १५ जैसे मछलियों की गति का कारण जल है उसी प्रकार धर्म जीवों की गति का कारण है । ६ चलतेचलते थका हुआ मनुष्य जैसे किसी स्थान विशेष पर रुक जाता है उसी प्रकार 'अधर्म' भी पुद्गलादि को रोकने में सहायता देता है। 'काल' का लक्षण 'वर्तना' अर्थात् परिणाम आदि कराना माना गया है। काल के तीन भेद हैं-भूत, भविष्य तथा वर्तमान । व्यवहार की दृष्टि से 'काल' द्रव्य के 'समय', 'प्रावलि', 'नाड़ी',
१. वराङ्ग०, २६-१०-११ २. वही, २६-१२-१३ ३. प्राचार्य श्री आत्माराम जी, जैन तत्त्व कलिका, पंचम कलिका, पृ० ६१ ४. धर्माधर्माणवः कालाकाशौ चाजीवसंज्ञिता: । –नेमि० १५.७० धर्माधर्मावथाकाशं कालः पुद्गल इत्यपि । -चन्द्र०, १८.६७
तथा धर्म०, २१.८१ ५. वराङ्ग०, २६.२३, नेमि०, १५.७० ६. वराङ्ग०, २६.२४, चन्द्र०, १८.६६ ७. वराङ्ग०, २६.२४, चन्द्र०, १८.७१ ८. चन्द्र०, १८.७४ ६. वराङ्ग०, २६.२७ .