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________________ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज नयों की संख्या के विषय में जटासिंह का मत है कि वाणी के जितने प्रकार हो सकते हैं 'नयों' की भी उतनी ही संख्या समझनी चाहिए तथा जितने 'नय' हैं उतने ही मिथ्या मार्ग (परतीर्थ) होते हैं ।' इस प्रकार हम देखते हैं कि आलोच्य युग में जटासिंह नन्दि ने 'अनेकान्तवाद' की व्यवस्था को अधिकाधिक ताकिक युक्तियों से जोड़ने की चेष्टा की है। साथ ही वे दूसरे भारतीय दार्शनिकों की मान्यताओं को मिथ्या मार्गी सिद्ध करने के लिए भी प्रयत्नशील. दिखाई देते हैं। वास्तव में जैन महाकाव्यों का युग एक ऐसा दार्शनिक युग था जब सभी दर्शन एक दूसरे की तत्त्वमीमांसा का खण्डन करने में विशेष रस ले रहे थे। अनेकान्तवाद पर विरोधी प्रहार इस युग में जैन दार्शनिक जहाँ एक ओर 'अनेकान्तवाद के माध्यम से जिस किसी भी दार्शनिकवाद की कटु आलोचना करने की तार्किक प्रणाली का विकास कर चुके थे वहाँ दूसरी ओर ‘अनेकान्तवाद' का खन्डन करने के लिए अनेक जैनेतर दार्शनिक भी मैदान में उतर पाए थे। दसवीं शताब्दी में भामतीकार वाचस्पति मिश्र ने 'अनेकान्तवाद' की अनेक तर्कसंगत त्रुटियों को सामने रखा । उनका कहना है कि जगत् का व्यवहार निश्चयात्मक अथवा व्यवसायात्मक बुद्धि के आधार पर चलता है, अनिश्चयात्मक ज्ञान से नहीं। इस कारण जैन दर्शन का 'स्याद्वाद' अनिश्चयपूर्ण मापदण्डों से केवल भ्रम को ही पैदा करता है। वाचस्पति मिश्र तर्क देते हए कहते हैं कि सत्ता और असत्ता परस्पर विरुद्ध धर्म हैं । वस्तुओं की नाना रूप से प्रतीति कुछ और है परन्तु विरुद्ध स्वभाव वाले पदार्थों की एक ही काल में एक ही स्थान पर एक साथ उपस्थिति अथवा उसकी अनिर्वचनीयता सर्वथा असंभव है। एकान्तिक निर्धारण अथवा निश्चय प्रवृत्ति मात्र का साधक है किन्तु 'अनेकान्तवाद' में यह सम्भव नहीं। अतएव 'स्याद्वाद' की अपेक्षा से 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' - यह ज्ञान अप्रमाणभूत हो जाता है। इसके अतिरिक्त वाचस्पति मिश्र ने सप्तभंगों में सप्तत्व संख्या का निश्चय, उनके स्वरूप का निर्धारण करने वाले पुरुष और साधन १. यावन्तो वचसां मार्गा नयास्तावन्त एव हि । तावन्ति परतीर्थानि यावन्तो नयगोचराः ।। -वराङ्ग०, २६ ६६ २. ब्रह्मसूत्र, २.२.३३ पर भामती टीका ३. ईश्वर सिंह, भामती एक अध्ययन, रोहतक, १९८३, पृ० १४३ ४. सदसत्त्वयोः परस्परविरुद्धत्वेन समुच्चयाभावे विकल्पः । न च वस्तुनि विकल्प: संभवति । -भामती, २.२.३३
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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