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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएँ
मोक्षप्राप्ति हेतु भी सर्वथा श्रसमर्थ है ।" इसके विपरीत समग्र नयीं से विशिष्ट 'अनेकान्तवाद' की तर्कप्ररणाली ही मोक्ष प्राप्ति हेतु सहायक है ।
सिंह का यह भी कथन है कि अपने पक्ष को सत्य घोषित करने तथा दूसरे के पक्ष को मिथ्या सिद्ध करने का आग्रह रखने वाले 'नय' 'मिथ्या नय' हैं । 3 किन्तु जब विभिन्न 'नय' परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा से नियोजित होते हैं तभी वे सत्य का ज्ञान करा सकते हैं । उदाहरणार्थ मरिण, पद्मराग, आदि रत्न जब बिखरे हुए पड़े रहते हैं तो उनकी 'रत्नावली' (हार) संज्ञा नहीं होती अपितु परस्पर गुँथे जाने पर ही हार के रूप में उनकी सार्थकता सिद्ध होती है । ४ हार बनाने की कला में निपुण व्यक्ति ही इन बिखरी हुई मणियों को परस्पर यथास्थान पिरोता है परन्तु इस प्रक्रिया में मणि विशेष के पृथक्-पृथक् नाम लुप्त हो जाते हैं । " वास्तव में जटासिंह 'प्रमाण व्यवस्था' के दार्शनिक युग में प्रविष्ट हो रहे थे । यही कारण है कि उन्होंने 'नयचेतना' को 'प्रमाणविज्ञान' से जोड़ने की चेष्टा की है। उनका मानना है कि 'नैगम' आदि नय अपने प्रांशिक ज्ञान का पूर्ण पदार्थ के ज्ञान में आत्मसमर्पण कर देते हैं जिसके कारण वे 'सम्यक्त्व' अर्थात् प्रमारण संज्ञा को प्राप्त होते हैं तथा अपने पूर्व रूप (नय) के 'मिथ्यात्व' की स्थिति को छोड़ देते हैं । इस सम्बन्ध में जटासिंह ने यह भी स्पष्ट किया है कि लोकव्यवहार की दृष्टि से उपयोगी समझे जाने वाले 'नय' जब तक सापेक्ष होकर व्यवहृत होते हैं तब तक ही उनका औचित्य बना रहता है, जैसे ही वे निरपेक्ष भाव में आ जाते हैं तो उनकी प्रामाणिकता मिथ्या सिद्ध हो जाती है ।
१.
२. वही, २६.७४
३.
४.
वराङ्ग०. २६.७२-७३ तथा २६.६८
७.
तस्मादुक्ता नयाः सर्वे स्वपक्षाभिनिवेशिनः । मियाद्दशस्त एवैते तत्त्वमन्योन्यमिश्रिताः ।।
५. वही, २६.६२
६.
मरणयः पद्यरागाद्याः पृथक्पृथगथ स्थिताः । रत्नावलीति संज्ञां ते न विदन्ति महर्षिणः ||
तथैव च नया: सर्वे यथार्थं सम्यक्त्वाख्यां प्रपद्यन्ते प्राक्तनीं
—वही, २६.६०
वराङ्ग०, २६.६६.६७
— वही, २६.६१
विनिवेशिताः । संत्यजन्ति च ॥
३७७
—वही, २६.६३