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साहित्य समाज श्रौर जैन संस्कृत महाकाव्यं
तथा
से है ।' इस प्रकार सामाजिक सङ्गठनों के अन्तर्गत सांस्कृतिक 'समितियां ' 'ससूह' के व्यवहार भी समाविष्ट हैं ।
२. 'समुदाय' ( Community ) - समाजशास्त्र के अनुसार 'समुदाय' सामाजिक जीवन से सम्बद्ध एक प्रकार का जाल ( Complex) है जिसमें बहुत से प्राणी सम्मिलित रहते हैं तथा निरन्तर परिवर्तनशील रूढियों तथा परम्परानों से परस्पर जकड़े हुए होते हैं । सामान्य सामाजिक लक्ष्यों तथा हितों के प्रति इन प्राणियों में सजगता रहती है । २ 'समुदाय' के स्वरूप के विषय में बहुत मतभेद हैं । 'मैकाइवर' तथा 'पेजे' के अनुसार ग्राम, नगर, जाति, राष्ट्र श्रादि 'समुदाय' हैं, किन्तु दूसरे समाजशास्त्री उक्त इकाइयों को 'समुदाय' संज्ञा देने के पक्ष में नहीं तथा 'नगर' आदि को भी 'समुदाय' का प्रङ्ग ही मानते हैं । संक्षेप में 'समुदाय' एक सी परम्परा वाले लोगों का वह छोटा सा श्रङ्ग है जो 'समाज' के भीतर ही रहता है और 'समाज' सदृश ही होता है ।
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३. 'समिति' (Assoclation) – मानव समाज की कतिपय सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए 'समितियों' का जन्म होता है । 'मैकाइवर' के अनुसार 'समिति' वह ऐच्छिक संगठन है जिसके माध्यम से उसके सदस्यों को कुछ हित सामूहिक रूप से प्राप्त हो पाते हैं । ' 'गिन्सबर्ग' ने 'समुदाय' तथा समिति में अन्तर दिखाते हुए कहा है कि 'समुदाय' 'समिति' से कहीं बड़ा संगठन होता है तथा समुदाय में सदस्यों के सभी हितों के सुरक्षित रहने की भावना विद्यमान रहती है किन्तु 'समिति' किसी हित विशेष के सम्पादन के लिए ही प्रयत्नशील रहती है । व्यापारियों के संगठन, राजनैतिक दल, विद्वानों के मंच आदि समितियाँ कहलाती हैं । ७ संक्षेप में 'समिति' समान हितों अथवा लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मनुष्यों द्वारा स्वेच्छा से बनाया गया समूह है जिसके कुछ नियम होते हैं तथा उसमें सहयोग की भावना सर्वोपरि रहती है ।
१. Reuter and Hart, Introduction to Sociology, New York, 1935, p. 143
Cole., G.D.H., Social Theory, London, 1920, p. 25
२.
३.
Das, A.C., An Introduction to the Society, p. 26 ४. वही, पृ० २५-३०
५.
रामनाथ शर्मा, समाज शास्त्र के सिद्धान्त, भा० २, मेरठ, १६६८, पृ० २६४
६.
७.
Ginsberg, Psychology of Society, London, 1933, p, 121
Das, An Introduction to the Study of Society, p. 31