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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
३५७ (ख) उत्सपिणीकाल-१. दुःषमा-दुःषमा (अति दुःषमा), २. दुःषमा, ३. दुःषमा-सुषमा, ४. सुषमा-दुःषमा ५. सुषमा तथा ६. सुषमा-सुषमा'
__ उपर्युक्त छह कालों में से प्रथम-'सुषमा-सुषमा' काल का चार कोटि-कोटि (कोड़ाकोड़ी) सागर प्रमाण है। दूसरा कालविभाग-'सुषमा' तीन कोटि-कोटि सागर प्रमाण वाला होता है। तीसरे - 'सुषमा-दुःषमा' का काल प्रमाण एक कोटिकोटि सागर है । चौथे- 'दुःषमा-सुषमा' का प्रमाण ४२ हजार वर्ष कम एक कोटिकोटि सागरोपम माना जाता है । पांचवे काल-'दुःषमा' का प्रमाण २१ हजार वर्ष है तथा छठे-'दुःषमा-दुषमा' का काल भी २१ हजार वर्ष माना गया है। इस काल परावर्तन में कुलंकर, तीर्थङ्कर आदि शलाकापुरुषों का प्राविर्भाव होता है जो कर्मभूमि की अपेक्षा से जीवमात्र का कल्याण करते हैं। चौदह कुलकर अथवा सोलह मनु
जैन परम्परा के अनुसार जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र की अपेक्षा से भोग भूमि का ह्रास होने पर १४ अथवा १६ कुलकरों के आविर्भाव को माना जाता है । 'कुल' की मांति इकट्ठे रहने का उपदेश देने कारण इन्हें 'कुलकर' संज्ञा दी गई है। इन्होंने अनेक कुल स्थापित किए इसलिए इन्हें 'कुलधर' भी कहा जाता है ।५ प्रजा के जीवन-यापन सम्बन्धी उपायों को जानने के कारण 'कुलकर' 'मनु' भी कहलाते हैं।६ कुलकरों' को अवधिज्ञानी नहीं माना जाता परन्तु विशेष ज्ञानी होने के कारण ये 'जाति-स्मरण' के धारक माने जाते हैं । 'कुलकरों ने कल्पवृक्षों की हानि के द्वारा जन सामान्य की कठिनाइयों को समझा और उनका समाधान बताकर लोगों का कष्ट दूर किया । ७ संख्या की दृष्टि से चौदह 'कुलकर' चौदह 'मनु' के रूप में भी माने जाते हैं । कभी कभी तीर्थङ्कर ऋषभ देव तथा चक्रवर्ती भरत की गणना 'कुलकरों' अथवा 'मनुषों' के रूप में भी की जाती है। फलतः जैन परम्परा में १६ 'कुलकरों' अथवा १६ 'मनुषों' की अवधारणा भी प्रचलित रही है। 'कुलकरों के क्रमिक नाम इस प्रकार हैं :-(१) प्रतिश्रुति (२) संमति (३) क्षेमंधर (४) क्षेमंकर (५) सीमंकर (६) सीमंधर (७) अमलवाहन (विमलवाहन)
१. वराङ्ग०, २७.२८, चन्द्र०, ६.३५, धर्म०, २१.५०-५१ २. वराङ्ग० २७ २६-३०, चन्द्र०, १८.३६-४१, धर्म०, २१-५३-५५ ३. उत्पेदिरे कारणमानुषास्ते जिनाश्चतुर्विंशति तत्र जाताः । -वही, २७.३२ ४. प्रार्याणां कुलं संस्त्यायकृतेः कुलकरा इमे। -महापुराण, ३.२११ ५. कुलानां धारणादेते मता: कुलधरा इति । -वही, २१२ ६. प्रजानां जीवनोपायमननान्मनवो मताः । -वही, २११ ७. शास्त्रसार समुच्चय, हिन्दी टीकाकार आचार्य श्री देशभूषण, पृ० १२ ८. द्रष्टव्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० २३ तथा महापुराण, ३.२३२