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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
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में प्रचलित थीं । गृहस्थ व्यक्ति की इन व्रताचरणों में श्रीर अधिक रुचि बढ़ाने के लिए प्रप्सरानों के साथ रमण करने, प्रद्भुत प्रकार के भोगों को भोगने, मृत्यु - उपरान्त पृथ्वी पर हरिवंश, भोजवंश, इक्ष्वाकु वंश जैसे प्रसिद्ध वंशों में जन्म मिलने आदि के धार्मिक विश्वास समाज में विशेष रूप से प्रचलित थे ।
राजा कुमारपाल द्वारा जैन व्रतों का पालन
चालुक्य राजा कुमारपाल ने साम्राज्य विस्तार करने के उपरान्त मंत्री वाग्भट के कहने पर कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि से धर्मोपदेश प्राप्त किया । " राजा कुमारपाल ने जैनाचार्य हेमचन्द्र से प्रभावित होकर मांस खामा तथा प्राखेट करना बन्द कर दिया था । उन्होंने विभिन्न राजकीय प्रवसरों पर पशुओं की बलि चढ़ाने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। महावीरचरित से ज्ञात होता है कि राजा कुमारपाल ने मनोरञ्जन की दृष्टि से की जाने वाली सूअरों को दोड़ों तथा मुर्गों की लड़ाइयों आदि क्रूर गतिविधियों पर भी पाबन्दी लगा दी थी। यहाँ तक कि निम्न जाति के लोगों को भी पशुओं के वध करने की अनुमति नहीं थी । द्वयाश्रय काव्य से स्पष्ट होता है कि 'अमारि' अर्थात् पशुवध निषेध की राजाज्ञा से प्रभावित हुए निम्न जाति के कसाई श्रादि लोगों को प्राजीविका हेतु राज्य की प्रोर से तीनतीन वर्षों का वेतन दिया गया। गुजरात में 'अमारि' की यह स्थिति लगभग चौदह वर्षो तक रही थी । हेमचन्द्र ने सर्वप्रथम कुमारपाल को हिन्दू तथा जैन धर्मो के सामान्य सिद्धान्तों की शिक्षा दी तदनन्तर जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों से अवगत कराया । कुमारपाल को 'ग्रह' स्तुति' के प्राठ मार्गों का उपदेश भी दिया
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१. तेदिवं यान्ति सद्व्रताः ।,
सौधर्मादिषु कल्पेषु संभूय विगतज्वराः । तत्राष्टगुणमैश्वर्यं लभन्ते नात्र संशयः ।।
— वराङ्ग०, १५.१२६-२७ तथा चन्द्र०, ३.५५
२. अप्सरोभिश्चिरं रन्त्वा वैक्रियातनुभासुराः ।
भोगानतिशयान्प्राप्य निश्च्यवन्ते सुरालयात् ॥ - वराङ्ग०, १५.१२८
३. Sheth, C.B., Jainism in Gujarat, p. 65 तथा
सोमप्रभकृत कुमारपालपतिबोध, पू० ५-६
सोमप्रभकृत कुमारपालप्रतिबोध, पृ० ४०-४१
४.
५. महावीरचरित, १२.६५-७४
६. द्वया०, २०.४-३७
७. Sheth, Jainism in Gujarat, p. 70 ८. वही, पृ० ७० ७६.