SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज धर्म की सुधारवादी लहर ने भी पुरातन वैदिक कर्मकाण्डों एवं बलिप्रथानों के विरुद्ध आवाज उठाई। परन्तु जटासिंह नन्दि द्वारा दिए गए ब्राह्मण संस्कृति के विरोधी स्वर इस तथ्य के महत्त्वपूर्ण प्रमाण हैं कि महाकाव्यों के समय में ब्राह्मण संस्कृति की कमजोरियों को कैसा वैचारिक रूप दिया गया था ? समाज में व्याप्त धार्मिक अन्धविश्वासों और पौरोहित्यवाद के चंगुल में फंसी ब्राह्मण-व्यवस्था की किन तों के आधार पर विरोधी वर्ग द्वारा आलोचना की जाती थी? जटासिंह नन्दि कृत वराङ्गचरित के सन्दर्भ में इनकी स्थिति इस प्रकार है(क) वर्ण-व्यवस्था का विरोध जटासिंह नन्दि का मत है कि मनुष्य जाति एक होने के कारण उसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्गों में विभक्त कर विषमता लाना प्रमाणों एवं नयों की दृष्टि से भी सर्वथा अनुचित है ।' उनका कहना है कि सत्युग में किसी प्रकार का वर्ण विभाजन नहीं था किन्तु त्रेता युग में कुछ स्वार्थी लोगों ने अपनी सेवा कराने के उद्देश्य से भृत्यवर्ग की नींव डालने के लिए ही वर्ण-व्यवस्था का विधान किया था।२ रङ्ग की दृष्टि से ब्राह्मणादि का विभाजन करना भी सर्वथा अनुपयुक्त है क्योंकि व्यवहार में यह देखा जाता है कि ब्राह्मण चन्द्र-किरणों के समान श्वेत नहीं होते, क्षत्रिय भी किंशुक पुष्प के समान गौरवर्ण नहीं होते, वैश्य हरिताल पुष्प के समान हरे रङ्ग के नहीं होते तथा शूद्र भी कोयले के समान कृष्ण वर्ण के नहीं होते हैं । त्वचा, मांस, रक्त, मज्जा, हड्डी प्रादि से; चलने, उठने, बैठने आदि से तथा रङ्गरूप, केशादि से सभी वर्गों में समानता है। इसलिए मनुष्य जाति के एकत्व को वर्ण-विभाजन द्वारा नष्ट करना सर्वथा अनुचित १. अस्त्यक एवात्र यदि प्रजानां कथ पुनर्जातिचतुष्प्रभेदः । प्रमाणदृष्टान्तनयप्रवादैः परीक्ष्यमाणो विघटामुपैति ।। -वराङ्ग०, २५.२ २. कृते युगे नास्ति च वर्णभेदस्त्रेताप्रवृत्तावथवाथ भृत्यम् ।। __-वही, २५.६ ३. न ब्राह्मणाश्चन्द्रमरीचिशुभ्रा न क्षत्रियाः किंशुकपुष्पगौराः । न चेह वैश्या हरितालतुल्याः शूद्रा न चाङ्गारसमानवर्णाः ॥ -वही, २५.७ ४. पाद प्रचारैस्तनुवर्णकेशः सुखेन दुःखेन च शोणितेन । त्वग्मांसमेदोऽस्थिरसैः समानाश्चतुःप्रभेदाश्च कथं भवन्ति ॥ -वही, २५.८
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy