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श्रावास व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा
की जाती है ।" मिनिर्वाण में इस ग्राभूषण का उल्लेख प्राया है ।
२०. मुक्तावलि ३ – द्विसन्धान महाकाव्य में 'मुक्तावलि' को कण्ठ तथा सिर दोनों का प्राभूषण माना गया है । ४ कण्ठाभूषरण के रूप में इसे 'एकावलि' से अभिन्न माना जा सकता है ।
२१. वत्सदाम ५. - यह आभूषण श्रीवत्स मणियों से निर्मित होने के गई है ।
भी माला सहश कण्ठाभूषरण था । कारण इसे 'वत्सदाम' की संज्ञा दी
२२. प्रलम्बसूत्र ७ – वराङ्गचरित महाकाव्य में मुक्ता निर्मित 'प्रलम्बसूत्र' का उल्लेख आया है। संभवतः यह नीचे तक लटकने वाली माला रही होगी । संस्कृत शब्दार्थ - कौस्तुभ के अनुसार इसे 'कण्ठहार' से प्रभिन्न माना गया है । 8
(घ) कराभूषरण
२३. अंगद १० – भुजानों पर बांधा जाने वाला प्राभूषरण होता है । 'श्रङ्गद' को भुजाओं की कोहनियों के ऊपरी भाग में धारण किया जाता है। हिन्दी में इसे 'बाजूबन्द' भी कहा जाता है । ११
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२४. केयूर' १२ - 'केयूर' भी मुजा में ही धारण किया जाता है किन्तु यह 'प्रङ्गद' से नीचे पहना जाता था । १३ कालिदास के रघुवंश के आधार पर 'केयूर' एक नुकीला आभूषण था । १४ अमरकोषकार 'अङ्गद' तथा 'केयूर' को यद्यपि पर्यायवाची मानते हैं किन्तु इन दोनों आभूषणों का एक साथ प्रयोग होना इनकी पारस्परिक
१. गोकुल चन्द्र जैन, यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, १४७
पृ०
२. नेमि०, ७.३०
३. द्विस०, १.४३
४.
वही, १.४३
५.
वराङ्ग०, १५.५६
६. खुशाल चन्द्र गोरावाला, वराङ्ग चरित, पृ० १२८
७.
वराङ्ग०, १५.५७
८.
६. संस्कृत शब्दार्थ - कौस्तुभ, पृ० ७८०
मुक्ताप्रलम्बसूत्राणि । — वराङ्ग०, १५.५७
१०. वराङ्ग०, ७.१७, चन्द्र०, १३.६, नेमि०, १२.७, पद्मा०,
११. नेमिचन्द्र शास्त्री, प्रादि पुराण में; पृ० २१८
६.६०
१२. वराङ्ग०, १५.५८
१३. Satya Vrat, The Rāmāyana – A Linguistic Study, Delhi. 1964, p. 39
१४. रघुबंश, ७.५०