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________________ २८८ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज 'नगम' से क्या अभिप्राय रहा होगा ? संभावना यह ही अधिक प्रतीत होती है कि स्मृतियों में 'नैगम' से अभिप्राय 'व्यापारी वर्ग' से ही रहा होगा। स्मृति ग्रन्थों में पाए 'नगम' तथा स्वतन्त्र रूप से 'नगम' की व्याख्या करते हुए परवर्ती निबन्ध ग्रन्थों के लेखक भी 'नेगम' के स्वरूप प्रतिपादन में एकमत नहीं । कुछ टीकाकार 'नगम' को वेदादि से जोड़कर इस शब्द का 'वेद को प्रमाण मानने वाला' अर्थ करते हैं।' याज्ञ० के टीकाकार विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा (१०८०-११०० ईस्वी) के अनुसार 'नगम' की 'पाशुपतादि' सम्प्रदायों के सन्दर्भ में व्याख्या की गई है। याज के ही एक अन्य टीकाकार विश्वरूप (८००८५० ई०) के अनुसार 'सार्थवाह प्रादि का समूह' 'नगम' कहलाता है । याज्ञ० के तीसरे टीकाकार अपराकं (११००-१३०० ई०) के अनुसार 'एक साथ व्यापार के लिए जाने वाले नाना जाति के लोग' 'नगम' कहलाते हैं। देवण्णभट्टकृत स्मतिचन्द्रिका (१२००-१२२५ ई.) के मत में सार्थवाहों का संगठन 'नगम' है ।" मित्रमिश्रकृत 'वीरमित्रोदय' (१६१०-१६४० ई०) के अनुसार 'रत्नादि बहुमूल्य वस्तुओं का व्यापार करने वाले' 'नेगम' कहलाते थे। इस प्रकार स्मृति ग्रन्थों तथा निबन्ध ग्रन्थों के सन्दर्भ में 'नगम' का अर्थ व्यापारी करना उचित है। ६. दक्षिण भारत के व्यापारिक निगम-प्राचीन भारत में राजा आदि से दान में प्राप्त ग्राम विशेषों की 'अग्रहार' संज्ञा प्रचलित थी। अधिकांश रूप १. नारद०, १०.२ पर 'व्यवहारमुख्य' की व्याख्या—'पाषण्डि' व्यापार तथा कृषि करने वाले वेद विरोधी सम्प्रदाय, 'नगम' बेद का विरोध न करने वाले लोग । द्रष्टव्य, Mookerji, Local Govt., p. 128, fn. 3 २. नेगमाः ये वेदस्य प्राप्तप्रणीतत्वेन प्रामाण्यमिच्छन्ति, पाशुपतादयाः । -मिताक्षरा ३. सार्थवाहादिसमूहो नेगमा:-(विश्वरूप), पी० बी० काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास्य, भाग २ पृ० ६४६ से उद्त तथा तु०-'पाषाण्डनगमादीनां' पर पृथ्वीचन्द्र कृत टीका-'पाषण्डाक्षपणादयः । नेगमाः साथिका वणिजः । -व्यवहार०, पृ० ३०६ ४. सह देशान्तरं वाणिज्यार्थ ये नानाजातीया अधिगच्छन्ति ते नगमाः । -अपरार्क, पृ० ७६६, धर्मशास्त्र का इतिहास, पृ० ६४६ से उद्धृत ५. Smrticandrika of Devanna Bhatta, ed. Gharpure, J.R., Mysore, Vol. III, p. 523 ६. नेगमाः रत्नादीनां वाणिज्यकर्तारः। -वीरमित्रोदय, राजनीतिप्रकाश, प० ४८ ७. Thapar, Romila, A History of India, Great Britain, 1974, Vol. I, p. 176
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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