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________________ प्रावास-व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा २७९ इस 'निगम तक पहुंचने के लिए कुछ दूर यान से तथा उसके बाद पैदल ही जाया जा सकता था।' इससे स्पष्ट है कि निगम नगर के समीपवर्ती ग्राम होते थे, जहां की समीपवर्ती भूमि ऊबड़-खाबड़ (विषम) होती थी, इसलिए रथ प्रादि के द्वारा जाना असम्भव था।२ परवर्ती वास्तुशास्त्र के ग्रन्थों से भी ज्ञात होता है कि 'निगम' प्रायः वन-पर्वतादि से प्रारक्षित होते थे। बौद्धकाल में संभवतः इन 'निगमों' को राज्य की ओर से अधिक सुविधाएं प्राप्त नहीं थीं किन्तु मध्यकालीन भारत में निगमों में अधिकांश रूप से परिणक निवास करने लगे थे। विश्वकर्मवास्तुशास्त्र के अनुसार 'निगम' नामक नगर 'नपभोग्य' भी कहलाए जाने लगे थे, तथा इनमें मार्ग प्रादि की सभी सुविधाएं भी प्रदान कर दी गई थीं। ५. जैन-साहित्य-जैन प्रागम-ग्रन्थों में 'निगम' (रिणगम) का अनेक बार १. तु०-'एक समयं भगवा सक्केसु विहरति । मेदलुम्पं नाम सक्यानं निगमो तेन खो पन समयेन राजा पसेनदि कोसलो नगरकं अनुप्पत्तो होति । ...कीवदूरे पन, सम्म, कारायन नगरफम्हा मेदलुम्पं नाम सक्यानं निगमो होतीति' ? 'न दूरे महाराज, 'तीणि योजनानि, सक्कादिवसावसेसेन गन्तु'ति । तेन हि सम्म कारायन, योजेहि भद्रानि भद्रानि यानानि; गमिस्साम मयं तं भगवन्तं दस्सनाय मरहन्तं सम्मास सम्बुद्ध' ति' ।...भद्रेहि भद्रेहि यानेहि नग्रकम्हा येन मैदलुम्पं नाम सक्यानं निगमो तेन पायासि; तेनेव दिवसावसेसेन मेदलुम्पं नाम सक्यानं निगमं सम्पापुरिण; येन आरामो तेन पायासि । यावतिका यानस्य भूमि यानेन गत्वा, यानापच्चोरोहित्वा पत्तिको व मारामं पाविसि ।' -मज्झिमनिकाय, धम्मचेतियसुत्त, पृ० ३२२-२३ २. वही, तथा तु०-"nigama or the city, 1.e. urban portion large tracts of forest or groups of mountains which were no man's land belng resorts of 'rlshis' formed generally the boundaries of these states that were seldom conterminant,' -De, Signi. and Imp. of Jatakas, p. 131 ३. वनमध्यगतो वापि गिरिसानुगतोऽपि वा ...कथितो निगमो बुधैः ।। -विश्वकर्मवास्तुशास्त्र, 8.40-46 ed. K.V. Shastri, Tanjore, ___1958, ४. निगमो वरिणग्ग्रामः । -पदचग्द्रिका, JInIst Studies, पृ. १५ पर उद्धृत ५. निगमाविनगर्यस्तु नपभोग्या उदीरिताः। तथा चतुर्दिक्स्थचतुर्दारो महामार्गयुतो भवेत् । -विश्वकर्म०, ४०.४२
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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