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________________ २७० जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज भेद मानना व्याकरण की दृष्टि से तो अनिवार्य है ही,' इसके अतिरिक्त पारिभाषिक दृष्टि से यदि दोनों में भेद नहीं माना जाएगा तो फिर ‘पुर-पौर' तथा 'जनपद-जानपद' में भी भेद मानना 'पौरजानपद सिद्धान्त' के अनुकूल नहीं। इस प्रकार जायसवाल द्वारा प्रतिपादित निगम के व्यापारिक-सङ्गठन' अर्थ के औचित्य हेतु रामायण में कोई अवकाश नहीं है । रामायणकाल में राष्ट, राज्य, विषय, नगर, ग्राम, पुर, जनपद, घोष आदि आवासभेदक विभिन्न संज्ञाएं प्रचलित थीं । यद्यपि 'निगम' पुरों-जनपदों की भांति लोकप्रिय नहीं हो पाए थे किन्तु इनका अस्तित्व अवश्य था। संभवतः रामायण के रचना क्षेत्र में 'निगम' नामक संस्थिति अधिक प्रचलित न रही हो, किन्तु दक्षिणभारत के निगमों का प्रतिनिधित्व करने के लिए वहां के राजाओं के साथ 'नेगम' भी उपस्थित होते थे। इस प्रकार रामायण में 'नेगम', 'पोर', 'जानपद' किसी प्रकार के व्यापारिक संगठन अथवा राज्य की संवैधानिक समिति के द्योतक नहीं अपितु निगमों, पुरों तथा जनपदों से सम्बन्धित निवासी अथवा उनके शासक आदि के द्योतक हैं। वस्तुस्थिति यह है कि 'निगम' का रामायणकाल में अस्तित्व अवश्य था ।५ तभी रामायण में नेगमों के उल्लेख प्राप्त होते है । निष्कर्षतः 'निगम' नामक निवासार्थक-संस्थिति के निवासी साधारणत: 'नेगम' कहलाए जा सकते हैं और शासन-सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दावली के अनुसार निगमों पर शासन करने वाले लोग भी उपलक्षण से 'नैगम' १. निगम्यते निगमः, गोचरसंचरेति (अष्टाध्यायी ३.३.११६) साधुः । निगमे भवो नैगमः-नामलिङ्गानुशासन, क्षीरस्वामीकृत टीका, सम्पा० कृष्णजी गोविन्द प्रोका, पूना, १९१३, पृ० २०८ तथा तु०“The literal significance of Nigama, from which Naigama is derived, is in accordance with Panini, III, 3.119. ...The body of the people associated with the Nigama'. -Jayaswal, Hindu Polity, p. 254 २. Sharma, Ramasharaya, A Socio-Political Study, p. 285 ३. अमात्या बलमुख्याश्च मुख्या ये निगमस्य च । -प्रयो०, १५.२ ४. उपविष्टाश्च सचिवा राजानश्च सनैगमाः । प्राच्योदीच्याः प्रतीच्याः दाक्षिणात्याश्च भूमिपाः ।। -अयो०, ३.२५ ५. अमात्या बलमुख्याश्च मुख्या ये निगमस्य च । राघवस्याभिषेकार्थे प्रीयमाणस्तु सङ्गताः ॥ -अयो०, १५.२
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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