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प्रावास-व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा
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अध्याय में राजधानी के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । राज्य शासन, सैन्य व्यवस्था एवं शत्रुओं के आक्रमणों की सुरक्षा आदि विभिन्न आवश्यकताओं को देखते हुए 'राजधानी' की स्थापना की जाती थी। जैन महाकाव्यों में वर्णित नगर वास्तव में 'राजधानी के रूप में ही वरिणत हैं।'
५. आकर
प्रागम ग्रन्थों की टीकामों से प्रतीत होता है कि 'पाकर' स्वर्ण अथवा लौह प्रादि धातुओं के उत्पत्ति स्थान (खान) रहे होंगे। यदि इस परिभाषा को स्वीकार कर लिया जाए तो जैन संस्कृत महाकाव्यों में उल्लिखित स्वर्णादि की खानों को 'पाकर' संज्ञा दी जा सकती है।५ आदिपुराण के कर्ता ने 'पाकर' की परिभाषा स्पष्ट नहीं कि किन्तु इस ग्रन्थ के सम्पादक पन्ना लाल जैन ने 'पाकर' के समीप सोने चांदी के खानों की अवस्थिति स्वीकार की है। पद्मानन्द महाकाव्य में निर्दिष्ट पाद टिप्पणी में भी 'पाकर' को सोने आदि की खान माना गया है। इन सभी परिभाषाओं में 'पाकर' को निवासार्थक नगर भेद के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है किन्तु ग्राम नगरादि के साथ 'पाकर' का प्रयोग निवासार्थक ही लगता है इसलिए 'पाकर' को सोने-चांदी की खानों के निकटस्थ ग्राम मानना चाहिए । संभवतः इन्हीं खानों में काम करने वाले कर्मकार इन प्राकरों में रहते होंगे। जैन महाकाव्यों के ग्राम वर्णनों के सन्दर्भ में ऐसे पाकरों का उल्लेख होने से भी ऐसा प्रतीत होता है कि कवि इन ग्रामों के समीपस्थ खानों का वर्णन करना चाहता है । ' रुद्रदामन् के जूनागढ़ शिलालेख' तथा गौतमी पुत्र शातकर्णी के
१. द्विजेन्द्र नाथ शुक्ल, भारतीय वास्तु शास्त्र, लखनऊ, पृ० १०३ २. एवंविधां तां निजराजधानी निर्मापयामीति कुतूहलेन । -नेमि०, १.३८ ३. आकराणां स विंशतिसहस्राणामधीश्वरः ।
-पद्मा०, १६.१६८, वसन्त०, १३.४३, तथा वराङ्ग०, ३.४ ४. स्वर्णाद्युत्पत्तिस्थान् (उत्तरा० टीका),
लोहाद्युत्पत्तिभूमयः (कल्प० टीका), Jinist Studies, पृ० १२ पर
उद्धृत । ५. समुज्जवलाभिः कनकादियोनिभिविकासनीभिः खनिभिः समन्ततः ।
-चन्द्र०, १.१८, तथा द्वया०, ११.३७ ६. आदिपुराण, १६.१७६ तथा हिन्दी अनुवाद, पृ० ३६२ ७. हिरण्याकरादय प्राकराः । -पद्मा०, १६.२६६, पृ० ३६२ पर उद्धृत ८. चन्द्र०, १.१८ ६. Epigraphia Indica, VII, p. 44