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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज है।' 'गोपुर' पर्याप्त ऊँचे होते थे ।२ 'गोपुर' द्वारों को झण्डे प्रादि से सजाया जाता था। - उपर्युक्त 'परिखा' तथा 'गोपुर' शत्रुओं के प्राक्रमण से रक्षा करने के प्रयोजन से बनाए जाते थे।
३. वप्र -अर्थशास्त्र ने, परिखा बनाने के बाद जो मिट्टी खोदकर निकाल दी जाती थी, उसी से ‘वप्र' बनाने का विधान किया है।४ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भी प्राकार-परिखा आदि के साथ 'वप्र' (अन्तर्वेदी) के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं ।५ नेमिनिर्वाण महाकाव्य में 'वप्र-भित्ति' को शुभ्र कहा गया है।
____४. प्राकार-वप्र के ऊपर 'प्राकार' अर्थात् परकोटे का निर्माण किया जाता था। बहुत ऊंचे प्राकारों द्वारा नगर को प्रावेष्टित किया जाता था। प्राकार को 'परिधि' तथा 'शाल'१° भी कहा गया है।
५. अट्टालक-प्राकारों में जिन बुजों का निर्माण किया जाता था उन्हें ही 'अट्टालक' कहा गया है। ये 'अट्टालक' नगर की चारों दिशाओं में होते थे।"
आदिपुराण के अनुसार परकोटे पर 'अटटालिकाओं की पंक्तियाँ बनी होती थीं जो परिमाण में साठ हाथ लम्बी तथा एक सौ बीस हाथ ऊंची थीं। २ 'अट्टालक'
१. निरयणं पुरगोपुरतश्चमूः । -चन्द्र०, १३.३७ २. हिमाद्रिकूटोपमास गोपुरम् । -वराङ्ग०, ३१.३ ३. द्विस०, ६.५१ ४. खाताद्वप्रं कारयेत् । अर्थशास्त्र, पृ० ५१, तथा तु०-उदय नारायण, प्राचीन
भारत में नगर तथा नगर जीवन, पृ० २४४, ५. प्राकारपारिखाव, पारितः परिवेष्टितम् ।-चन्द्र०, २.१४१, नेमि०, १.४७,
हम्मीर०, १.२६ ६. यद्वप्रभित्तिः शरदभ्रशुभ्रा। -नेमि०, १.४७ ७. वप्रस्योपरि प्राकारम् । -अर्थशास्त्र, पृ० ५२, उदय नारायण, प्राचीन
भारत में, पृ० २४५ पर उद्धृत । ८. द्विस०, १.२०, चन्द्र०, २.५१, जयन्त०, १.४६, कीर्ति०, १.४६ ६. समुच्छिते यत्परिधो हिरण्मये। -द्विस०, १.२०
विभाति यस्मिन्परिधिः । -चन्द्र०, १.२३ १०. द्विस०, ८.४६ ११. उदय नारायण, प्राचीन भारत में, पृ० २४८ १२. आदि०, १६.६२