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________________ २४४ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज १. ग्राम ग्राम की निरुक्तिपरक व्याख्या करते हुए सूत्रकृतांग की 'दीपिका' में साधुओं द्वारा भिक्षा के लिए ग्रामों में जाकर गुणों का 'ग्रसन' करना अथवा अठारह प्रकार के करों को सहन करना अथवा कण्टक तथा वाटकों आदि से प्रावृत रहना ग्राम के तीन लक्षण दिए गए हैं। इनमें से अन्तिम लक्षण ही ग्राम के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डालता है । आदिपुराण में कृषि-क्षेत्र, जलाशय, नदी, पर्वत, गुफा, कटीले वृक्ष, वन तथा सेतु आदि ग्रामों की सीमाओं के चिह्न माने गए हैं ।3 छोटा ग्राम वह है जिसमें सौ घर होते हैं तथा बड़ा ग्राम वह है जिसमें ५०० घर होते हैं। ग्राम-आर्थिक उत्पादन के मुख्य केन्द्र जैन संस्कृत महाकाव्यों में कृषि अथवा पशुपालन व्यवसाय करने वाले ग्रामों का अधिकांश रूप से उल्लेख पाया है । आदिपुराण के स्रोतों के आधार पर शिल्पि-ग्रामों के अस्तित्व की भी सूचना प्राप्त होती है। इसी काल में ब्राह्मण जाति के ग्राम 'अग्रहार' कहलाते थे। उसी प्रकार 'निगम' आदि ग्रामों को महाकाव्यों के टीकाकारों ने 'भक्तग्राम' के रूप में भी स्पष्ट किया है। इन 'भक्तग्रामों' के स्वरूप के विषय में यद्यपि और अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता तथापि १. तु०-पुराकरग्राममडम्ब०-वराङ्ग०, ३.४, पुराकरग्राम०, - वराङ्ग, २१.४८, चन्द्र०, ६.३८, जयन्त०, १.३५ तथा वसन्त०, १३.४३ २. तु०-भिक्षार्थं साधुर्धमति ग्रामे गुणान् ग्रसतीति ग्रामस्तस्मिन् ग्रामेऽथवा ग्रसति सहतेऽष्टादश विधं करमिति ग्रामस्तस्मिन्नथवा कण्टकवाटकावृतो जनानां निवासो ग्रामः । (सूत्रकृताङ्ग--दीपिकाटीका) -Stein, Jinist Studies, पृ० ४ में उद्धृत ३. आदि०, १६.१६६-६७ ४. ग्रामाः गृहशेतेनेष्टो निकृष्टः समधिष्ठितः । परस्तत्पञ्चशत्या स्यात् सुसमृद्धकृषीवलः ।। -आदि०, १६.१६५ ५. वराङ्ग०, २१. ४१, चन्द्र०, १.१६, धर्म०, १.४३-५५ ६. वराङ्ग०, १.२६, २१.४७, चन्द्र०, २.१२३, जयन्त० , १.३१ ७. नेमिचन्द्र, प्रादि पुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० ७१-७२ ८. रामशरण शर्मा, भारतीय सामन्तवाद, पृ० ६६ ६. द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० २५३.५६
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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