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________________ २३० जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज अनुसार ईस्वी की प्रथम शताब्दी में, कुषाण काल में रोम के 'डिनेरियस' नामक सिक्के का यह प्रतिरूप रहा था।' _ 'सुवर्ण' नामक सिक्के का प्रयोग जैन आगम ग्रन्थ 'निशीथसूत्र' में भी हुआ है। ऐसी संभावना की जा सकती है कि संस्कृत 'स्वर्ण' तथा 'सुवर्ण' पर्यायवाची रहे होंगे। द्वयाश्रय महाकाव्य में जिन अन्य मुद्रापरक इकाइयों की ओर संकेत किया गया है उनमें 'रूप्य'3 'कार्षापण',४ 'निष्क',५ 'पण', 'कोकणी', 'सुवर्ण' 'शूर्प' आदि नाम उल्लेखनीय हैं । द्वयाश्रय महाकाव्य में 'लोहितिक'१० नामक लोहे की मुद्रा का भी उल्लेख आया है। ___नारङ्ग महोदय के अनुसार, 'रूप्य' अथवा 'रूपक' मुद्राएं एक ही रही थीं।" अभय तिलक गरिण के अनुसार बीस रूपकों में खरीदी गई वस्तु 'विंशतिक' कहलाती थी। २ वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार यह बीस माषों के बराबर की मुद्रा रही होगी।13 सौराष्ट्र के दक्षिणस्थ द्वीप' के दो 'साभरक' को उत्तरापथ के एक 'रूप्यक' के तुल्य, उत्तरापथ के दो 'रूप्यक' को पाटलिपुत्र के एक 'रूप्यक' के तुल्य दक्षिणापथ के दो 'रूप्यक' को कांचीपुरी के एक 'नेलक' के तुल्य तथा कांचीपुरी के दो 'नेलक' को पाटलिपुत्र के एक 'नेलक' के तुल्य स्वीकार किया जाता था।१४ कम्बलों के मूल्य १८ 'रूप्यक' से लेकर एक लाख 'रूप्यक' तक भी होते थे ।१५ १. वही, पृ. १८८, पाद टि०८ २. निशीथसूत्र, ५.३५ ३. रूप्यस्य प्रतिकी। -द्वया०, १७.७६ ४. कार्षापणिकी काञ्चनस्य किम् । --वही, १७.७६ ५. नैष्किका बैस्तिका द्वित्रिबहाद्या । -वही, १७.८५ ६. पणः कार्षापणः । -द्वया० १७.८७ पर अभयतिलकगणिकृत टीका, पृ० ३८५ ७. वही, १७.८८ ८. द्विसुवर्णात्रिसौणिकांशुका । वही, १७.८३ ६. शोपिकं वासनम् । वही, १७.८१ १०. पाञ्चलौहितिकोन्मेयम् । वही, १७.८२ ११. Narang, Dvayasraya, p. 215 १२. विंशती रूपकादीनि मानमस्य विंशतिकम् । -द्वया०, १७.८१ पर कृत अभय० टीका, पृ० ३८२ १३. Agrawala, V.S., India As known to Panini, p. 269 १४. जगदीश चन्द्र जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० १८९ १५. बृहत्कल्पभाष्य, ३.३८९०
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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