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जैन संस्कृत महाकाव्य में भारतीय समाज
वर्गों के लिये उद्यान का शोभा एवं रुचि की दृष्टि से भी विशेष महत्त्व रहा था।' इसके अतिरिक्त जैन मुनियों द्वारा उद्यानों में भाषण करना, प्रेमी-प्रेमिकाओं द्वारा प्रेम-व्यवहारों का सम्पादित होना आदि साँस्कृतिक एवं श्रेङ्गारिक गतिविधियों के लिए भी उद्यान विशेष रूप से प्रसिद्ध हो चुके थे । राजा लोग वनों में आखेट के लिये भी जाते थे।४ राज्य की ओर से नगर के बड़े-बड़े उद्यानों को संरक्षण प्राप्त था । परिणामतः उद्यान की रक्षा के लिये 'उद्यानपाल' की नियुक्ति होने के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं । प्रायः जैन मुनियों के उद्यानों में आने पर 'उद्यानपाल' स्वयं जाकर राजा को सूचित करता था।६ उद्यान पर्याप्त विशाल होते थे।" उपदेश-श्रवण आदि अवसरों पर विशाल जन-समूह इन उद्यानों में बैठकर धार्मिक प्रवचन सुन सकता था । उद्यानों की सामाजिक उपादेयता उद्यान-व्यवसाय की आर्थिक पृष्ठभूमि का निर्माण करने में विशेष सहायक रही थी। उद्यानों के सम्बन्ध में 'स्वामित्व' की कल्पना भी समाज में मान्य हो चुकी थी। इस प्रकार आलोच्य युग में 'उद्यान' व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में भी स्वीकार किये जाने लगे थे।
उद्यानों आदि में वृक्षारोपण
वनों, उद्यानों, वाटिकाओं,१० नदी के तटस्थ'१ स्थानों में वृक्षारोपण किये जाते थे । वृक्ष आर्थिक दृष्टि से उत्पादन के भी महत्त्वपूर्ण साधन रहे हैं। आलोच्य काल में भी चन्दन, माला, सुगन्धि, विविध प्रकार के लेप आदि ऐश्वर्य एवं भोग
१. धर्म०, १२.१, यशोधर०, ४.१० २. धर्म०, २.७५ ३. वराङ्ग०, १.३०, धर्म०, .१७, १२३.३ प्रद्यु०, ७.५२ ४. हम्मीर०, ४.५५-५८ ५. वराङ्ग०, ३.६ ६. धर्म०, २.७५, प्रद्यु०, ६.२७ ७. वराङ्ग०, ३.६, धर्म०, २.७५ ८. प्रद्यु०, ६.३०-३१ ९. तपोहीनं यथा ज्ञानं ज्ञानहीनं यथा तपः । स्वामिहीनं तदुद्यानं, तस्य नातिमुदेऽजनि ।
-पद्मा०, १३.३७०; तथा-अरक्षक ह्य पवनं पान्थैरप्युपजीव्यते । परि०, ७.१०६ १०. वराङ्ग०, २२.६६-७२, धर्म०, सर्ग-१२ ११. धर्म०, १.४६