SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज का भी महत्त्व रहता है। 'वितरण' के अन्तर्गत सुव्यवस्थित रूप से व्यापारिक गतिविधियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखना भी अत्यावश्यक है। मनु ने व्यापारिक शुल्क को एकत्र करने,' मुनाफाखोरों को दण्ड देने तथा माप तौल की दृष्टि से बेईमानी करने वाले व्यापारियों के लिए कठोर दण्डों का भी विशेष विधान किया है। राजा को व्यापारियों के 'योगक्षेम' अर्थात् हानि-लाभ के प्रति सतर्क रहने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इस प्रकार भारतीय विचारक 'अर्थव्यवस्था' के प्रशासकीय पक्षों पर भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । सम्पत्ति उपभोग और जैन परम्परागत 'नवनिधियाँ 'सम्पत्ति' की अवधारणा उसके उपभोग की प्रवृत्तियों से मूल्याङ्कित की जाती है। इस दृष्टि से जैन महाकाव्यों में परम्परागत नवनिधियों५ का वर्णन तत्कालीन समाज की उपभोगपरक प्रवृत्तियों को विशद करता है। धन, सम्पत्ति, खनिज पदार्थ, भोज्य एवं पेय वस्तुएं ही 'सम्पत्ति' के अन्तर्गत' समाविष्ट नहीं थी अपितु विविध प्रकार की भोग-विलासितापूर्ण सामग्रियाँ, रत्न-आभूषण, युद्धोपयोगी प्रायुध आदि भी 'निधि' की अवधारणा का प्रतिनिधित्व करते थे। एक आदर्श राजा के सन्दर्भ में इन नवनिधियों की स्थिति इस प्रकार मानी गई है १. नैसर्प विधि-विशाल भवन, नगर, ग्राम आदि इसके अन्तर्गत पाते हैं । चन्द्रप्रभचरित तथा वर्षमान चरित में शय्या से सम्बन्धित तकिया, रजाई, पलङ्ग तथा आसनादि वस्तुओं को भी परिगणित किया गया है । पद्मा० महाकाव्य में विभिन्न प्रकार के नगरों तथा ग्रामों के स्वामित्व को राज्य वैभव के रूप में स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि पारस्परिक राज्य सम्बन्धों को मधुर बनाने के के लिए नगर-ग्राम आदि दान में भी दिए जाते थे । त्रि० श० पु. में दान तथा गृह १. शुल्कस्थानेषु कुशलः सर्वपण्यविचक्षणाः । -मनु०, ८.३९८ २. वही, ८.४०१ ३. वही, ८.४०३ ४. महा० शान्ति०, ८६.२३; मनु०, ८.४०१ ५. वराङ्ग०, २८.३४, चन्द्र०, ७.१८-२७, वर्षः, १४.२५ ६. चन्द्र०, ७.२६, वर्ष०, १४.२६ ७. चन्द्र०, ७.२६ ८. पद्मा०, १६.१९२-२०० ६. वराङ्ग०, १६.२१ तथा १६.५७
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy