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अन्त में मैं ग्रन्थ के प्रकाशक श्री श्यामलाल मल्होत्रा का विशेष धन्यवाद प्रकट करता हूं जिनके सौजन्य से इस बृहदाकार ग्रन्थ का प्रकाशन हो सका । अमर प्रिटिंग प्रेस के मुद्रण-प्रभारी श्री विधी चन्द तथा श्री छविलाल विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं जिनकी निष्ठा और लगन से पुस्तकीय दायित्व का सफल निर्वाह हो पाया है ।
बहुत प्रयत्न करने पर भी पुस्तक में अनेक प्रकार की त्रुटियां रह गई हैं। तत्त्वग्राही उदार पाठक उन्हें स्वविवेक से सुधारकर ही ग्रहण करेंगे। भारतीय विद्या तथा जैन विद्या के विद्वानों तथा मध्यकालीन इतिहास के शोधार्थियों को इस पुस्तक से किञ्चित् भी यदि लाभ हुआ तो मैं अपने इस कृत्य को सफल ही समझंगा क्योंकि कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र के अनुसार ज्ञान-सागर को लांघना और ज्ञानपिपासा को बुझाना दोनों ही अत्यन्त दुष्कर कार्य हैं
वाग्वंभवं ते निखिलं विवेक्तुमाशास्महे चेन्महनीयमुख्यम् । लङ्घम जङ्घालतया समुद्र बहेम चन्द्रद्युतिपानतृष्णाम् ।।
दिल्ली, ऋषभदेव जयन्ती, ३१ मार्च, १९८६
मोहन चन्द